अँचरा के छाँव में (कविता) / राम सिंहासन सिंह
घर-दरबाजा सब बदलल हौ
बदलल सभे मकान
तुलसी चौरा कहीं न´ मिलतो
घरवा भेल दुकान।
पहिले अँगना में गूँजऽ हल
प्रीत - गीत के ढेर
चह-चह चिड़ियन-चुरगुन आवई
फुदकल साँझ-सवेर।
अब तो इहाँ दुकान सजल हौ
मिलतो पहरेदार
मन के हँसी-खुसी सब अब तो
बन गेलो व्यापार।
नानी-दादी के ऊ लोरी
अब तो भेल मुहाल
भरल-पुरल घर देखते-देखते
हो गेल हे बेहाल
घर के बुतरून टी. बी. देखे
मार-काट के खेल
गीता आऊ रामायण भेलो
घरवा में बेमेल
उािल-पुथल मच गेलो सगरो
जन-जन हथ हलकान
कौड़ी खातिर अप्पन भाई
ले ही ले तो जान।
हमर सुन्नर दुनिया जाने
काहे अइसन भेल
प्यार-गीत के गंगा-धारा
नाला में बह गेल।
युवक देस के जागऽ तू ही
लयबऽ नया बिहान
तोहरे से ई धरती जगतइ
मिलतइ फिर सम्मान।
सेवा के निःस्वार्थ फूल से
जरा सज्जाऽव गाँव
धरती माँ के अँचरा के फिर
मिल तो सीतल छाँव।