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अँधेरा-उजाला-1 / लीलाधर जगूड़ी
Kavita Kosh से
अँधेरे के भी किसी गुण की तारीफ़ क्यों न की जाए
उजाला होते ही, बिना नष्ट हुए भी
तत्काल अपने नष्ट होने से हिचकिचाता नहीं
और पक्का इतना कि उजाला बुझते ही, तुरंत जन्म ले लेता है
अँधेरे की प्रशंसा को ग़ाली मानते हैं लोग
ढेर सारा अँधेर और अँधेरा फैलाए हुए लोग
वे अँधेरी और हवाओं से जूझते हुए
अकेले जलते दिये की प्रशंसा करते हैं
जबकि अँधेरे का ईंधन भी तेल-बाती के साथ
चुप-चाप जलता रहता है
यह अँधेरे की सिफ़त है कि वह कभी ख़त्म नहीं होता
पर कभी भी उजाले का गला नहीं घोंटता
और अंत में अँधेरा ही मित्रवत् उसे
अपनी काली आभा के कफ़न से ढक देता है