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अँधेरा... / पंखुरी सिन्हा

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अँधेरा,
इतना घना, इतना गहरा,
और भेदती हो उसको उसकी प्रार्थना,

जैसे कवच पहनाती हो उसे,
और अँधेरा महसूस होता हो जैसे कोई गुफ़ा,
आदिम, ख़ामोश, खूँखार,
और चमकते हों कवच उसके,

जैसे बताते हों शत्रु को पता उसका,
लपकते हों अस्त्र, शिकारी हो अँधेरा,

टटोलते उसे,
भरते हुए कोटरों में प्रार्थनाएँ,
पूजनीय तत्त्व,
जगाना असाध्य ऊर्जा,
अदृश्य शक्ति,

प्रार्थना नहाते भी,
और नहाना भी अँधेरे में,
घुप्प कर अँधेरा,

बुझाकर सारी दिया-बाती,
ये तो परम्परा नहीं,

लेकिन परम्परा है,
नहाते हुए भजने का उसका नाम,

परम्परा है प्रार्थना की,
निष्कवच ।