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अँधेरा ही अँधेरा / कौशल किशोर

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ऐसा तो नहीं था
पर हो गया है ऐसा ही
कि अपने घर में रहते हुए भी
वह महसूस करती है अपने को असुरक्षित
हमेशा भयाक्रान्त
उसका यह भय
उस वक्त बढ़ जाता है
जब मैं जाता हूँ घर से बाहर
कहती है संभल कर जाना
भीड़ से बचकर रहना
बात-बात पर बहस करने की
अपनी आदत पर रखना कन्ट्रोल
किसी से उलझना नहीं
अंधेरा घिरने से पहले ही आ जाना घर

उसका यह भय होता है अपने चरम पर
जब बेटे को जाना होता है बाहर
उसकी धड़कन बढ़ जाती है
वह नहीं चाहती
कि उसका कदम बाहर निकले
पर उसे भी जाना पड़ता है
अपने कलेजे पर पत्थर धर लेती है
सुबह ही सुबह खुल जाती है
हिदायतों की पोटली

कि किसी का दिया कुछ नहीं खाना
लोग बार-बार पूछे भी तो
नहीं बताना अपना नाम
मुंह सिले रखना
चुप-चुप रहना
मोबाइल स्विच ऑफ न करना
और हर घंटे देते रहना अपना हाल-चाल
भूल जाओ बाजार, हाट, सिनेमा, थियेटर
सीधे जाना, उसी पांव लौटना

इस तरह अपने तई बेटे के इर्द-गिर्द
वह सुरक्षा की अभेद्य दीवार तैयार करती है
दरवाजे के ओट से उसे तब तक निहारती है
जब तक ओझल नहीं हो जाता
वह मुड़-मुड़ कर देखता
हाथ हिलाता
प्रत्युत्तर में वह भी हाथ हिलाती
देखती जाती देखती जाती
बेटा नजरों से दूर होता जाता

और नजरों में जो नजर आता
उनमें कई-कई चेहरे
रक्तरंजित, तड़पते, छटपटाते
उसके हृदय की धड़कन बढ़ जाती
किसी संभावित हादसे की आशंका से
उसका सारा शरीर कांपने लगता
और कांपते हाथों से बन्द करती दरवाजा
जो बन्द हो नहीं पाता
उसकी आंखों में
दिन में ही छा जाता अंधेरा
अंधेरा ही अंधेरा