अंकुश अभाव के / रमेश रंजक
गिरवी हैं सारी उम्मीदें
दिन का चैन रात की नींदें
कर्ज़ पसीने पर हावी है आँखें चढ़ी थकान की
इतनी भर ज़िन्दगी बची इन्सान की
काग़ज़ की रेखाओं जैसी
दीख रहीं पसलियाँ मनुज की
दिन दूनी दयनीय हो रही
दशा आज देव के अनुज की
माथे पर अनगिन चिन्ताएँ
तन पर उभरी हुई शिराएँ
झुके हुए कन्धों पर भारी अर्थी है अरमान की
महँगाई बाढ़ की नदी-सी
निगल गई सारी ख़ुशहाली
हँसी उड़ाने लगा दशहरा
डंक मारती है दीवाली
बिखर गए राखी के धागे
रंगहीन होली के आगे
चहल-पहल खो गई ईद की, ख़ुशी बिकी रमजान की
कमर तोड़ खरचों की सूची
सुबह फेंक जाती आँगन में
शाम ढले अँकुश अभाव के
आग लगा जाते तन-मन में
हम अपने आँसू तो पी लें
चना-चबैना खा कर जी लें
लेकिन कैसे देखें हम गीली आँखें सन्तान की