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अंगिका रामायण / चौथा सर्ग / भाग 3 / विजेता मुद्‍गलपुरी

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सत्-चित-आनन्द में, मन-बुद्धि-करम में
शिखर-समुद्र-थल में हरि के बास छै।
ध्वनि-परकास में भी हरि के रोॅ वास जानोॅ
शबद में अक्षर में हरि के रोॅ बास छै।
अणु-परमाणु बीच, देश केरोॅ ध्वज बीच
धरा-धन-धेनु बीच हरि के रोॅ बास छै।
तीनो लेाक, तीन काल, चौदहो भुवन बीच
जहाँ भी तलासोॅ तहाँ हरि के रोॅ बास छै।

कहलन शिव तब हरि के विराट रूप
मस्तक स्वर्ग, आँख हरि के सुरूज छै।
दशो दिश कान छिक, आरो वायु प्राण छिक
अगनित देवता ई अगनित भुज छै।
हृदय जगत छिक नाभी आसमान छिक
अग्नि देव मुख, नाक अश्विनी अनुज छै।
दिन-रात पलक, वैकुण्ठ धाम कंठ छिक
ज्ञान देवगुरु, शनि तन के रोॅ रूज छै॥22॥

उदर समुद्र, नदी नाड़ी, हड्डी परबत
वृक्ष छिक केश जे सगर लहराय छै।
नक्षत्र हरि के वृक्ष, ग्रह सब टा इन्द्रिय
मन चन्द्रमा वाणी सरस्वती कहाय छै।
सत्-चित-आनन्द ई अंतह-करण छिक
तेज आरो शक्ति भगवती कहलाय छै।
प्रेम से पुकारते ही तीन तत्व धारी हरि
पाँच तत्व धारी अवतारी बनी जाय छै॥23॥

दोहा -

जगत गुरु के बात सुनि, बिहसल देव समाज,
सब हरि के सुमरेॅ लगल, सिद्ध करै लेॅ काज॥4॥

सवैया -

हे रघुनाथक हे वरदायक
हे नररूप नरायण स्वामी।
उज्वल तों रवि से पुरुषोतम
हे धनुधारक अंतरयामी।
रुप धरै यमुनावरनी अरु
पाँव सुपंथ सदा अनुगामी।
पूजन जोग सदा सब लायक
संत रटै नित राम नमामी॥1॥

सवैया -

व्यापक ब्रह्म अनादि अनन्त
सदा जिनकोॅ यश संतन गावै।
संतन के सुख देवनिहार
सदा सरनागत अंग लगावै।
संत विरागि बनी अनुरागि
सदा सच्चिदानन्द रूप केॅ ध्यावै।
प्रेम केॅ डोर बँधी क अरूप
सरूप धरी धरती पर आवै॥2॥

हे भव भंजन दैत्य निकंदन
हे क्षिर-सिन्धु निवासि नरायण।
धेनु-धरा-सुर पालनिहार
सदा हरि-वैकुण्ठ वासी नरायण।
देव केॅ स्वामि सखा शरनागत के रॅ
सदा अविनाशी नरायण।
तोहि अगोचर गोचर तों हरि
एक तुहीं विश्वासी नरायण॥3॥

तांे बिन संग सहायक के
सगरो जग के निरमान करैलेॅ।
तों रचलेॅ जल-आग-हवा-
धरती अेॅ अकाश के तो निरमैलेॅ।
तों करलेॅ जग रॅ विसतार तेॅ
तीन विधि जग के उपजैलेॅ।
तों जल के, थल के, नभ के
सब जीव रची जग व्यापक कैलेॅ॥4॥

शेष सदैव अशेष कहै अरू
वेद सदैव विशेष बतावै।
शारद आखर ब्रह्म कहै अरू
संत-मुनि-यति पार न पावै।
बाढ़य ढेर अधर्म धरा पर
आवि सुधर्म के जोत जलावै।
ईश अरूप सरूप धरी तब
धर्म सनातन के सरियावै॥5॥

पीर हरोॅ धरती रॅ युगेश्वर
तों सत् के अब मान बचावोॅ।
हे भय भंजनहारि रमापति
तों जग के अब त्राण दिलावोॅ।
पाप रॅ नाश करोॅ जड़-मूल सँ
भाव सदा भगती रॅ जगावोॅ।
घोर अनैतिक भेल निसाचर
फेर सनातन रीति चलावोॅ॥6॥

सोरठा -

प्रगटोॅ रमानिवास, त्राहिमाम सुर सब करै।
हरोॅ जगत के त्रास, एक भरोसा तोर बस॥2॥

सुनोॅ पारवती भेल तखने आकाशवाणी
धरती तोहर पीर निशचित हरतोॅ।
तोहरोॅ उद्धार लेली, भगत के प्यार लेली
अवधपुरी में आवी हरि अवतरतोॅ।
मनु सत्रूपा के पूरत वरदान सब
कौशल्या के गोदी ब्रह्म शिशु रूप धरतोॅ।
धरती के भार सब हरण करत हरि
देवऋषि नारद के शाप सत्य करतोॅ॥24॥

आकाशवाणी सुनी क देवता प्रसन्न भेल
ब्रह्मदेव सब देवता के समझैलका।
बानर के रूप धरि सब धरती पेॅ चलोॅ
साथे-साथ सब के प्रयोजन बतैलका।
सब देवगण निज-निज ओज दान करि
एक-एक महावली वीर उपजैलका।
इन्द्र के प्रभाव से जनम भेल वाली के रोॅ॥25॥

‘देवगुरू’ के रोॅ अंश ‘तार’ महाकाय कपि
‘कुवेर’ के अंश ‘गंधमादन’ जनमला।
‘विश्व करमा’ के ‘नल’ अगिनी के ‘नील’ आरू
‘वरूण’ देवोॅ से कपि ‘सुषेण’ जनमला।
‘मयन्द-द्विविद’ दोनो ‘अश्विनी कुमार’ के रोॅ
‘प्रजन्य’ देवोॅ से कपि ‘सरभ’ जनमला।
‘पवन’ से ‘हनुमान’ महाबलवान कपि
आवी माता ‘अंजनी’ के कोख से जनमला॥26॥

कुछ तेॅ रहेॅ लगल ‘बाली’ अेॅ सुग्रीव संग
कुछ ‘गंधमादन’ के संग रहेॅ लागला।
कुछ ‘नल’-‘नील’ संग, कुछ त ‘सुषेण’ संग
‘मयन्द’-द्विविद’ संग कुछ रहेॅ लागला।
कुछ कपि ‘सरभ’ तेॅ कुछ ‘हनुमान’ संग
कुछ महावली ‘जामवन्त’ संग लागला।
भाँति-भाँति देव के रोॅ अंश कपि रूप भेल
राम अवतार के प्रतीक्षा करेॅ लागला॥27॥

कहलन शंभु अब अवध के हाल सुनोॅ
जौने राज्य के रोॅ अद्ीाुत इतिहास छै।
धन-धान्य से भरल-पूरल सुखद राज्य
सरयुग तट पर जिनकर बास छै।
बारह योजन लम्बा, चौड़ा तीस योजन के
जहाँ दशरथ अेॅ कौशल्या के निवास छै
नगर के शोभा लागै अमराबती समान
शीतल-सुगन्ध-मंद-सुखद वतास छै॥28॥

दोहा -

मुद्गल अवध समाज सन, एक्के मिथिला राज।
जहाँ धरम के राज छल, सुखमय सकल समाज॥5॥

राजा आरो प्रजा बीच अटल विश्वास बसै
धरम-अरथ-काम बड़ी मन भाय छैं
कामी-किरपन-क्रूर-ठग आरो नासतिक
खोजलो से अवध में नजर न आय छै।
अभक्षी-आचार शून्य-अज्ञानी-आलसि आरू
मिथ्यावादी कतहूं न एक्को टा बुझाय छै।
कहीं नै छै कोनों पर दोष के ढुढ़निहार
ठाम-ठाम सब हरि चरचा चलाय छै॥29॥

अवध के मंत्री सिनी परम गुनज्ञ सब
सब सदाचारी कार्यकुशल बुझाय छै।
जिनकोॅ सलाहकार वशिष्ट अेॅ वामदेव
‘जावाली-कश्यप’ जहाँ नीति समझाय छै।
मारकण्डे-गौतम जी परम हितैसी जहाँ
‘कात्यायण’ जहाँ कि सुधरम पढ़ाय छै।
मुद्गलपुरी ई अवध के सुयश भनै
कोनो भेद भाव से रहित यहाँ न्याय छै॥30॥