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अंगिका रामायण / पाँचवा सर्ग / भाग 8 / विजेता मुद्‍गलपुरी

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अवध के रज-कण माखन-रोटी के संग
जब प्रभु रामचन्द्र फेर से बढ़ैलका।
एहनोॅ प्रसाद सन दोसर प्रसाद कहाँ
ई प्रसाद काग-भुसुण्डी जी के लोभैलका।
ई महाप्रसाद के रोॅ कामना जगल जब
कामना प्रबल देखि राम मुसकैलका।
राम जी समझि गेल अबकी लुझकि लेत
फेर से दियै लेॅ हाथ आपनोॅ बढ़ैलका॥71॥

बेर-बेर भुसुण्डी जी चाहै छै प्रसाद मुख
बेर-बेर रामचन्द्र उनका चिढ़ाय छै।
इहेॅ बीच एक बेर भुसुण्डी लपकि गेल
हाथ से लपकि रोटी ऐंगना में खाय छै।
हाथ से छिनैतें रोटी राम चेहावी उठल
सुनतें कौशल्या झपदहिया चलाय छै।
उड़ी गेल फूर्र से भुसुण्डी महाराज तब
फेरो से रोटी उठावी रामचन्द्र खाय छै॥72॥

जेतने आनन्द-चित्त भगत भुसुण्डी भेल
तेतने आनन्द प्रभु रामचन्द्र पैलका।
रोदन छोड़ी केॅ फेरो देखी केॅ भुसुण्डी जी के
भगत के जूठ हरि मुँह में लगैलका।
रोटी न प्रसाद कहोॅ, ई महाप्रसाद भेल
रामचन्द्र भगत के मान के बढ़ैलका।
हाथ से छीनी क माता रोटी जब फेकलन
फेर तब रामचन्द्र रोदन उठैलका॥73॥

सोरठा -

सब सुख शोभाधाम, पकड़े चाहै काग के।
ललचावै प्रभु राम, ललचै संत भुसुण्डी तब॥5॥

निकट बुलावै आरो पूआ दिखलावै राम
फेरो से भुसुण्डी जी निकट चलि आवै छै।
चरण छुऐ के लेली बढ़ल भुसुण्डी जब
राम जी कौशल्या के पास भागी केॅ नुकावै छै।
जखनी फुदकी काग उड़ी केॅ मुरेड़ चढ़ै
दोनों आँख मली राम कानी केॅ दिखावै छै।
फेरो से भुसुण्डी रामचन्द्र के करीब आवै
राम लल्ला देखि-देखि खुली केॅ ठठावै छै॥74॥

राम में सहज सब बालक के गुण देखि
भुसुण्डी जी के मनोॅ में भरम उपजलै।
भुसुण्डी बालक राम में तलासै ब्रह्म राम
जेतने निदान चाहै तेतने उलझलै।
बालक में ब्रह्म राम के न कोनो गुण पावी
राम के सहज एक बालक समझलै।
ऐतने भरम से मनोॅ के मोह जागी गेल
सुलझल संत आवी मोह में लवझलै॥75॥

मोह सत-तम-रज तीनों गुण के रोॅ खान
जोने अभिमानी के रोॅ मान के मिटावै छै।
एक रस ज्ञान जौने जीव में न वास करै
तेहने के मोह माया अधिक नचावै छै।
भुसुण्डी के मनोदशा राम जी समझि गेल
बोलल न कुछ, राम देखि मुसकावै छै।
ऐंगना में फुदकै भुसुण्डी महाराज जब
पकड़ै लेॅ राम हाथ आपनोॅ बढ़ावै छै॥76॥

धरै लेॅ भुसुण्डी जी के चाहै जब रामचन्द
देखतें भुसुण्डी जी फुदकि उड़ी भागलै
भागैत भुसुण्डी घुरि-घुरि केॅ विलोकै तब
राम जी के हाथ, हाथ भर दूर लागलै।
भागैत भुसुण्डी ब्रह्म लोक तक गेल, किन्तु-
वहूँ राम जी के हाथ आस-पास लागलै।
भागैत भुसुण्डी गेल सातो आसमान पार
तब राम जी के हाथ देखि डर लागलै॥77॥

डरल भुसुण्डी करि लेलक नयन बन्द
खोललक आँख भेद समझि न पैलका।
खुद के देखलका कौशल्या जी के ऐंगना में
आरो रामचन्द्र जी के हँसैत देखलका।
मुँह जे खुलल तेॅ उदर में प्रवेश भेल
जहाँ कि अनेकन ब्रह्माण्ड के देखलका।
परम विचित्र सब एक पर एक लोक
घुमि-घुमि सब लोक दरसन कैलका॥78॥

दोहा -

कोटि ब्रह्म अगणित जगत, लोकपाल-दिगपाल।
भाँति-भाँति नदि-नद-विपिन, नाग-असुर-बैताल॥11॥

कोटि-कोटि ब्रह्म-शिव, अगणित तारा गण
अगणित सुरूज अेॅ चन्द्रमा देखलका।
अगणित लोकपाल, यम-काल अगणित
अगणित भूमि-गिरि-सागर देखलका।
विविध प्रकार नदि-नद-वन-उपवन
देव-मुनि-सिद्ध-नाग-मनुष देखलका।
जड़ आरो चेतन देखलका अनेकानेक
जे न कभी देखने छेला उहो देखलका॥79॥

एकक ब्रह्माण्ड में एकक सौ बरस रहि
घुमि-घुमि हरेक ब्रह्माण्ड के देखलका।
देखलन दृश्य जे न सोचने छेलाथ कभी
जे न सुनने छेलाथ तहनो दखलका।
अलग-अलग लोक के रोॅ ब्रह्मा-विष्णु-शिव
मनुष्य-गंधर्व-पशु-विहग देखलका।
नाग-दिगपाल-काल-असुर-बैताल सिनी
अलग-अलग देव-दनुज देखलका॥80॥