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अंगिका रामायण / प्रथम सर्ग / भाग 3 / विजेता मुद्‍गलपुरी

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एक त पति के बात पर न विश्वास भेल
दोसर कि ब्रह्म के मनुज जकां बुझली।
तेसर कि राम के परीक्षा लेॅ चललि सती
चौथा निज हठ बस अपने उलझली।
पाँचवाँ कि सती धरी लेलकी सीता के रूप
छठ कि महेश्वर से झूठ बात कहली।
सातवाँ कि शिव प्रण पुछलकि हठ करी
आठवाँ कि नैहरा के हठ पर अड़ली॥21॥

देवगण के विमान देखी पुछलकी सती
कहु प्राणनाथ देवगण कहाँ जाय छै?
कहलन शिव जी कि सुनोॅ दक्ष नन्दनी हे’
तोरे पिता राजा दक्ष यक्ष करवाय छै।
सब देवता के वै में कैलोॅ गेल आवाहन
जहाँ जाय देवगण निज भाग पाय छै।
एक असगरे हमरे-टा नै बोलैलोॅ गेल
महादेव सती के कारण बतलाय छै॥22॥

व्रह्मा के सभा में दक्ष हमरा न बूझि पैला
बेरथ के तिल केरोॅ ताड़ करी लेलका।
प्रजापति पद जब से मिलल दक्ष के त
पद के रोॅ मद अंगिकार करी लेलका।
हमरे विरोध लेोॅ तोहरो बिसारी गेलोॅ
नाहक के रूख व्यवहार करी लेलका।
एक मात्र हमरा बिसारी क ई दक्ष नृप
सब देवगण के हँकार करी लेलका॥23॥

पिता के रोॅ घर जब यज्ञ सुनलकि सती
नहिरा के मोह से ऊ उबरेॅ न पारली।
भूलि गेलि पिता-पति बीच के बिरोध सब
सिधे आँख मुनी सती नहिरा सिधारली।
शिव के रोॅ सीख नीक बात के किनार सखि
बिपरित दिश हित आपनोॅ विचारली।
झूठ अभिमान राखि चलली हँकार बिन
हठ के अधीन जग-जेता सती हारली॥24॥

सती हठ ठानी जब चलली नैहर तब
शिव जी प्रमुख गण साथ करी देलकै।
सती पहुँचली पिता द्वार पर भेंट भेल
देखतेॅ सती के पिता मुँह फेरी लेलकै।
माता भी मिललि उहो अनमन भाव से ही
कुल परिवार कोनो आदर न देलकै।
तब लगलै कि शिव ठीक कहने छेलाथ
मनेमन गलती स्वीकार करी लेलकै॥25॥

दोहा -

मुद्गल बिना हँकार के, जाना कहीं अनिष्ट।
कभी न जाना चाहियोॅ, कतनोॅ रहेॅ घनिष्ट॥4॥

यज्ञ थल पर जाय देखलकि सती तब
कहीं पर शिव के रोॅ भाग कहाँ दिखलै!
चारो दिश घुमि-घुमि, मनेमन देखि ऐली
कहीं शिव प्रति अनुराग कहाँ दिखलै!
शिव अपमान आरू अपनोॅ उपेक्षा बूझि
महासती के जे विकराल रूप दिखलै।
सती के रोॅ क्रोध आरू प्रवल प्रचण्ड भेल
तब महासती महाकाल सन दिखलै॥26॥

क्रोधानल में भरी क ठार भेली यज्ञ बीच
सती के देखी क सब जँह-जँह भागलै।
हाँक पारी सती यज्ञ-कुण्ड में प्रवेश भेली
अपने ही तप वलेॅ योगानल जागलै।
जलतेॅ सती के चारो दिश हाहाकार भेल
सुनलक खबर त महादेव जागलै।
शिव के रोॅ कोप से प्रकट भेल वीरभद्र
जौने आवी यज्ञ के बिध्वंस करेॅ लागलै॥27॥

सती के रोॅ शव शिव कंधा पे धरि लेलन
भरलोॅ बिछोह मन जहाँ तहाँ भटकै।
लाश के बिलोकी तब लाश्य-नृत्य याद भेल
शिव करै तण्डव खुलल लट पटकै।
शिव के रोॅ दशा देखी देवता व्यथित भेल
ई प्रलयकारी दृश्य सब केरोॅ खटकै।
धरि क अदृश्य रूप शव के सुदरसन
काटी-काटी डारै देव पास में न फटकै॥28॥

सती प्राण तजलकि योगानल में जरी क
तब ऊ जनमली हिमांचल के घर में।
समुचे नगर बीच आनंद पसरि गेल
जनम के बजल बधाई घर-घर में।
रूप रंग लागै एन्होॅ एकदम गौर वर्ण
जेहनोॅ स्वरूप नेॅ छै त्रिभुवन भर में।
गौर वर्ण देखि माता गौरी नाम राखलकि
भरल उल्लास माता मैना के नजर मेॅ॥29॥

एक दिन नारद हिमांचल के घर ऐला
सूनी क कि शैल सुता बड़ी भगवंत छै।
जिनकर शील-गुण देवता बखान करै
जिनकर रूप के न ओर छै न अंत छै
ऋषि आगमन सुनी सब हरखित भेल
चरण पखारै मैना आरू हिमवंत छै।
बार-बार ऋषि चाहै गिरजा के देखै लेली
जिनकर रूप के रोॅ चरचा अनंत छै॥30॥

सोरठा -

जगदम्बा के रूप, सब उपमा से छै परे।
एन्होॅ रूप अनूप, होलै नै होतै कही॥2॥