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अंतर्नाद / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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कहाँ गयी मुखड़े की लाली,
किसने छीनी छटा निराली;
पीला क्यों पड़ गया होलिके! तेरा गोरा गाल।
नभ-तल में, छविमय छिति-तल में,
सदा सरस रस रहा छलकता;
देख लोक में ललित लुनाई।
किसका लोचन था न ललकता।
तेरे लिए हुआ क्यों इतना अकलित काल कराल।
तेरी केलि विपुल लीलामय,
देख लोक-लालसा लुभाती;
तेरी हास-विलास-मत्तता,
थी विमुग्धता को ललचाती।
कहाँ गया वह विभव, लुटा क्यों वह रत्नों का थाल।
कलकंठी की कलितकंठता,
क्यों है कुंठित होती जाती;
क्यों कितनी सुकुमार कलाएँ,
रज में हैं लुंठित दिखलाती।
किया कलंकित किस कठोर ने अति कमनीय कपाल।
जिसका परम मनोहर सौरभ,
सुरभित सारी दिशा बनाता;
जिस पर विलसित सुरसिकअलि-कुल,
कर रस-पान मुग्ध दिखलाता।
कैसे टूटी वही नव-कलित कंठ-विलंबित माल।