अंतर-मंतर घोंघा-साड़ी / अमरेन्द्र
अंतर-मंतर, घोंघा-साड़ी, बुड़िया थूकै लौंग-सुपाड़ी।
लौंग-सुपाड़ी सेॅ की होतै, चार दिनोॅ के भूख की जैतै
रग-रग टूटै चार दिनोॅ सेॅ, लोर छुटै छै चार दिनोॅ सेॅ
जीयै के नै मोॅन करै छै, देहोॅ केहनोॅ, जे नै मरै छै
कोॅन उमीदी पर छै टिकलोॅ, कोय भरपेट्टा, कोय तेॅ भुखलोॅ
खूब विधाता के विधियो छै, कोय नंगा, कोय फर-फर साड़ी
अंतर-मंतर घोंघा-साड़ी, बुड़िया थूकै लौंग-सुपाड़ी।
बड़ा साब कन मौजे देखोॅ, हिन्नेॅ हाही रोजे देखोॅ
हुनकोॅ घर आराम चुवै छै, हमरोॅ घर मेॅ घाम चुवै छै
तहियो दाना लेॅ बिललाबौं कत्तेॅ केकरा लग घिघयाबौं
के देखै छै केकरोॅ दुख केॅ, सब पूछै छै आपने सुख केॅ
देवो भी आन्हरोॅ नै देखै, लोर चढ़ाबौं रोजे ठाड़ी
अंतर-मंतर घोंघा-साड़ी, बुड़िया थूकै लौंग-सुपाड़ी।
पीरो-पित्तर सब केॅ पुजलौं केकरा लग कहिया नै गेलौं
ठिक्के नी सब लोग कहै छै अपने मरलोॅ सरंग देखै छै
आबेॅॅ हम्में ही कुछ करबै, आखिर कब तक हेनेॅ मरबै
सब नागै केॅॅ दूधो दै छै, ढ़ोढ़बा केॅ काय नै पूजै छै
आखिर पोसला सेॅ की फायदा फुलचनिया माय अधकपाड़ी
अंतर-मंतर, घोंघा-साड़ी, बुड़िया थूकै लौंग-सुपाड़ी ।