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अंतिम अरण्य / कर्मानंद आर्य

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मैं चौराहे पर खड़ा
एक नंगा व्यक्ति हूँ
जिसे दिशाएँ लील लेना चाहती हैं
जिसके पास स्वयं को ढकने के लिए आवरण नहीं
जो तलाश रहा है आज भी एक वस्त्र
सूखे हलक में दबी हुई आवाज
जो कह रहा है
मेरे केश क्यों कटवा दिए गए
मेरा जनेऊ कहाँ है
मेरा ह्रदय क्यों बदल दिया गया
मेरी आँखें कहाँ है
अपने संबंधों और परिस्थियों से लड़ते हुए
वे खंडित पात्र कहाँ है
कहाँ है सुन्दरी, कहाँ हैं मैत्रेय सुरा
कहाँ हैं हमारी स्मृतियाँ
वे बुद्ध कहाँ है, जो सदियों नायक रहे
क्या आप नन्द को जानते हो
तब आप सत्ता में
एक पिछड़े व्यक्ति का विक्षोभ भी समझते होंगे
कहाँ है वह व्यक्ति
जिसे अपने मौलिक अधिकारों के लिए मर जाना पड़ा
कहाँ है वह आदमी
जो सदियों से हाशिये पर पड़ा है
कहाँ है वह व्यक्तित्व
जिसे दिशा लील गई
मैं वही मनुष्य, ढूंढ रहा हूँ अपने ही पद चिन्ह!!!