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अंतिम कौर तक / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
गुंधे हुए आटे के भीतर
छिपी हुई हैं अनगिनत रोटियाँ
और वे औरतें जानती हैं
जो जाँते में पीसती हैं पिसान
जिनके भीतर धधक रहा होता
है तन्दूर
जो बहुत दूर से कुँए से
खींचती हैं जल
जंगल से बीनती हैं लकड़ियाँ
जो चूल्हे की पूजा करती हैं
और भोजन बनाने के बाद
पहला कौर अग्नि को
समर्पित करती हैं
ये औरते जानती हैं
रोटियों के अन्दर छिपी हुई है
अनन्त भूख
और हर रोज़ उनकी तादाद
कम होती जा रही है
चौके में बढ़ते जा रहे हैं लोग
वे तो भूखे पेट सो जाती हैं
लेकिन अन्तिम कौर तक
गेहूँ और चूल्हे के सम्मान की
रक्षा करती हैं