अंतिम गीत / राकेश खंडेलवाल
विदित नहीं लेखनी उंगलियों का कल साथ निभाये कितना
इसीलिये मैं आज बरस का अंतिम गीत लिखे जाता हूँ
चुकते हुए दिनों के संग संग
आज भावनायें भी चुक लीं
ढलते हुए दिवस की हर इक
रश्मि, चिरागों जैसे बुझ ली
लगी टिमटिमाने दीपक की
लौ रह रह कर उठते गिरते
और भाव की जो अँगड़ाई थी,
उठने से पहले रुक ली
पता नहीं कल नींद नैन के कितनी देर रहे आँगन में
इसीलिये बस एक स्वप्न आँखों में और बुने जाता हूँ
लगता नहीं नीड़ तक पहुँचें,
क्षमता शेष बची पांवों में
चौपालें सारी निर्जन हैं
अब इन उजड़ चुके गांवों में
टूटे हुए पंख की सीमा
में न सिमट पातीं परवाज़ें
घुली हुई है परछाईं ,
नंगे करील की अब छांहों में
पता नहीं कल नीड़ पंथ को दे पाथेय नहीं अथवा दे
इसीलिये मैं आज राह का अंतिम मील चले जाता हूँ
गीतों का यह सफ़र आज तक
हुआ, कहाँ निश्चित कल भी हो
धुला हुआ है व्योम आज जो,
क्या संभव है यह कल भी हो
सुधि के दर्पण में न दरारें पड़ें,
कौन यह कह सकता है ?
जितना है विस्तार ह्रदय का आज,
भला उतना कल भी हो ?
पता नहीं कल धूप, गगन की चादर को कितना उजियारे
इसीलिये मैं आज चाँद को करके दीप धरे जाता हूँ