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अंधी चील का बसेरा / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
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और कितने दिन रहें मुर्दाघरों में
वही गुंबज
वही अंधी चील का
उसमें बसेरा
छावनी है धूपघर की
और है गहरा अँधेरा
उम्र सूरज की बँटी है आँकड़ों में
आँख सोने की सभी की
और मुर्दा सैरगाहें
अक्स लाशों के शहर में
किस तरह इनसे निबाहें
चुप खड़े हैं शंख टूटे मंदिरों में
एक टापू है अनोखा
रह रहे उसमें लुटेरे
हर तरफ बीमार जलसे
लोग मरते मुँह-अँधेरे
पूछते दिन - भोर क्यों है बीहड़ों में