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अंधेरों के नाम / सुदर्शन प्रियदर्शिनी
Kavita Kosh से
यह रात का
बचा खुचा अंधेरा
है या मेरे मन
का घटाटोप
जो खिङकी की
चौखट पर
जम कर बैठा
अन्दर झांक
रहा है
खिङकी की
सलवटों के
बाहर बिछी
हैं न जाने
कितनी
अनकही
अनब्याही
अनाहूत
विवशतांए
और आकांशायें
जिन पर
बिखर रहे हैं
गहरी पावस से
शिथिलित
अपने जनों के
आंसू
आंसू
पत्धर
बन कर
चिपक गये हैं
दरीचों के
बीचो बीच
दीमक से
चाटते रहे हैं
घर की
हर दीवार
और चौखट
खिङकी खोल भी
क्या होगा