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अकस्मात / अजित कुमार

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अकस्मात ही दिख जाते हो ।

ऊँचे पेड़ों की फुनगी से
हरे-भरे पत्तों के नन्हे हाथ हिलाकर
मुझे बुलाते हो :
फिर ओझल हो जाते हो ।
ओट मोर्पखी की लेकर
लुकाछिपी करते हो :
छूने तुम्हें चलूं तो हाथ नहीं आते हो ।
अकस्मात ही छिप जाते हो ।

दीवारों पर लिखे इश्तहारों के ऊपर
अंकित हो उठते हो :
तत्क्षण मिट जाते हो ।
दूर कहीं से आती स्वर-लहरी में तिरकर,
मुझको छूकर, आसपास ही मडलाते हो ।
मादक, मधुर गीत गाते हो :
और मूक हो जाते हो फिर अकस्मात ही ।

उधर जहाँ पर मंगल तारा,
वहीं कहीं आवास तुम्हारा-
ऐसा जतलाते हो ।
उस तारे को अपनी आभा से तुम कितना-कितना चमकाते हो ।
चकाचौंध कर देते हो मुझको :
फिर एकदम बुझ जाते हो ।
तारे को, मेरी आँखों को भी
निस्तेज बना जाते हो ।
अकस्मात ही ।

टिक-टिक करती हुई घड़ी में आ बसते हो । राह सुझाते हो, कहते हो, सुनते हो,
बातें करते हो …
मेरे सपने ॥
तुम मेरे बिलकुल ही अपने हो जाते हो-
कभी-कभी तो ।
बीच-बीच में कहीं चले जाते हो,
फिर वापस आते हो ।
तुमको पाने के, रखने के यत्न करूँ या नहीं करूं … पर
मिलते भी हो – बार-बार- खो भी जाते हो ।
मेरे सपने ।
सब अकस्मात ।