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अकाल मृत्यु / पल्लवी मिश्रा

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हे ईश्वर!
माना शिलाखण्ड है तू,
पर क्या हृदय से भी है पत्थर?
तभी तो बरपा सकता है
तू एक कहर पर एक और कहर।
कैसे कोई उनको समझाए?
कैसे ढाढस उन्हें बँधाए?
जो पहले ही दुःख से व्याकुल थे-
एक नगीना खोकर ही
जो तड़प रहे थे, आकुल थे-
एक गई थी घर आँगन को सूना करके-
दूजी गई उस सूनेपन को दूना करके-
ओ निष्ठुर, निर्दयी, कठोर!
न्याय का तेरे ओर न छोर-
जिस पतंग को इतना था ऊँचा उड़ाया,
वह पतंग क्या तुझको इतना भाया?
कि आज काट दी उसकी ही डोर-
यह सब कर तू भी तो शायद
रोया होगा मन-ही-मन में;
तभी बरसने को मचल रहे हैं
बादल देखो नील-गगन में!!!