भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अकेला तू तभी / वीरेन डंगवाल
Kavita Kosh से
तू तभी अकेला है जो बात न ये समझे
हैं लोग करोडों इसी देश में तुझ जैसे
धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
दाना पानी देती है वह कल्याणी है
गुटरू-गूँ कबूतरों की, नारियल का जल
पहिये की गति, कपास के ह्रदय का पानी है
तू यही सोचना शुरू करे तो बात बने
पीडा की कठिन अर्गला को तोडें कैसे!