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अकेला बैठा में विश्व के गवाक्ष में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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अकेला बैठा में विश्व के गवाक्ष में
देख रहा दिगन्त की नीलिमा में अनन्त की मौन भाषा।
प्रकाश है ला रहा अपने साथ छाया जड़ित
सिरीष वृक्ष स्निग्ध श्यामल सख्यता।
मन में बज बज उठता है - ‘दूर नहीं, दूर नहीं, नहीं बहुत दूर है।’
पथ रेखा विलीन हुई अस्तगिरि-शिखर के अन्तराल में,
स्तब्ध हुआ खड़ा हूं मैं दिगन्त पाठशाला द्वार पर,
दूर देखा, चमक रहे क्षण क्षण में
शेष तीर्थ मन्दिर के क्लश हैं।
वहाँ सिंहद्वार पर बज रही
दिगन्त की रागिणी,
जिसकी मूर्छना में मिश्रित है
इस जन्म का जो कुछ भी सुन्दर है,
स्पर्श जो करती है प्राणो को
दीर्घ यात्रा पथ में पूर्णतया का इंगित दे।
मन में बज बज उठता है-
‘दूर नहीं, दूर नहीं, नहीं बहुत दूर है।’