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अकेला बैठा हूं यहा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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अकेला बैठा हूं यहाँ
यातायात पथ के तट पर।
बिहान-वेला में गीत की नाव जो
लाये हैं खेकर प्राण के घाट पर
आलोक-छाया के दैनन्दिन नाट पर,
संध्या-वेला की छाया में
धीरे से विलीन हो जाते थे।
आज वे आये हैं मेरे
स्वप्न लोक के द्वार पर;
सुर-हीन व्यथाएँ हैं जितनी भी
ढूंढ़ती फिरतीं बीतते ही जाते हैं,
बैठा-बैठा गिन ही रहा हूं मैं
नीरव जप माला की ध्वनि
नस-नस में अन्धकार के।

कलकत्ता
30 अक्तूबर, 1940