अकेलेपन / नरेन्द्र शर्मा
आ गले से लगा लूँ, मेरे अकेलेपन!
ढल गया दिन, शेष होगा एक जीवन!
यह सुनहली साँझ, लोहे के कँटीले तार,
खो गई मेरे हृदय की सुनहली झंकार!
सूर्य-से इस डूबते दिल में नहीं अब प्यार!
वहाँ नभ में खिल रहा मंदार का कानन!
आ गले से लगा लूँ, मेरे अकेलेपन!
दूर सोने के कँगूरों से उतरती रात,
रेशमी सुरमई साड़ी में ढँके मृदु गात,
सजीली है—सूक की बेंदी दिए अवदात!
दिप रहा है कनकचम्पक चाँद-सा आनन!
आ गले से लगा लूँ, मेरे अकेलेपन!
देखते आकाश बीती आज आधी रात,
व्यर्थ है वो आये अब भी याद भूली बात,
सह चुका हूँ बहुत से आघात पर आघात,
अभी कुछ-कुछ रुका-सा था हृदय का रोदन!
आ गले से लगा लूँ, मेरे अकेलेपन!
दिन मुँदे ही सो गये थे पेड़ के सौ पात,
पड़ गया सोता यहाँ भी—बढ़ रही है रात,
छिपा नौ का अंक जो लिखते सितारे सात!
जागते बस दो जने—मैं और मेरा मन!
आ गले से लगा लूँ, मेरे अकेलेपन!