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अकेले रह गये दिन / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
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कई दिन
उत्सव हुए थे
फिर अकेले रह गये दिन
धूप उजली
साथ लेकर आयी थीं
नीली हवाएँ
उठीं-चल दीं
छोड़कर फिर
धुएँ की अंधी गुफाएँ
पंख उड़कर
जा रहे हैं
नीड़ से यह कह गये दिन
एक आँधी
घूमती है रात-दिन
बीमार घर में
थके चेहरे ऊँघते हैं
बात करते
दोपहर में
जिस तरह
दीवार पिछली
उस तरह ही ढह गये दिन