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अकेले होने का ख़ौफ / जुबैर रिज़वी
Kavita Kosh से
हमें ये रंज था
जब भी मिले
चारों तरफ़ चेहरे शनासा थे
हुजूम-ए-रह-गुज़र बाहों में बाहें डाल कर चलने नहीं देता
कहीं जाएँ
तआकुब करते साए घेर लेते हैं
हमें ये रंज था
चारों तरफ़ की रौशनी बुझ क्यूँ नहीं जाती
अँधेरा क्यूँ नहीं होता
अकेले क्यूँ नहीं होते
हमें ये रंज था
लेकिन ये कैसी दूरिया
तारीक सन्नाटे की इस साअत में
अपने दरमियाँ फिर से चली आई