अक्सर तुम शाम को घर आ कर पूछते / निधि सक्सेना
अक्सर तुम शाम को घर आ कर पूछते
आज क्या क्या किया??
मैं अचकचा जाती
सोचने पर भी जवाब न खोज पाती
कि मैंने दिन भर क्या किया
आखिर वक्त ख़्वाब की तरह कहाँ बीत गया..
और हार कर कहती 'कुछ नही'
तुम रहस्यमयी ढंग से मुस्कुरा देते!!
उस दिन मेरा मुरझाया 'कुछ नही' सुन कर
तुमने मेरा हाथ अपने हाथ मे लेकर कहा
सुनो ये 'कुछ नही' करना भी हर किसी के बस का नहीं है
सूर्य की पहली किरण संग उठना
मेरी चाय में ताज़गी
और बच्चों के दूध में तंदुरुस्ती मिलाना
टिफिन में खुशियाँ भरना
उन्हें स्कूल रवाना करना
फिर मेरा नाश्ता
मुझे दफ्तर विदा करना
काम वाली बाई से लेकर
बच्चों के आने के वक्त तक
खाना कपड़े सफाई
पढ़ाई
फिर साँझ के आग्रह
रात के मसौदे..
और इत्ते सब के बीच से भी थोड़ा वक्त
बाहर के काम के लिए भी चुरा लेना
कहो तो इतना 'कुछ नही' कैसे कर लेती हो
मैं मुग्ध सुन रही थी
तुम कहते जा रहे थे
तुम्हारा 'कुछ नही' ही इस घर के प्राण हैं
ऋणी हैं हम तुम्हारे इस 'कुछ नही' के
तुम 'कुछ नही' करती हो तभी हम 'बहुत कुछ' कर पाते हैं
तुम्हारा 'कुछ नही'
हमारी निश्चिंतता है
हमारा आश्रय है
हमारी महत्वाकांक्षा है..
तुम्हारे 'कुछ नही' से ही ये मकां घर बनता है
तुम्हारे 'कुछ नही' से ही इस घर के सारे सुख हैं
वैभव है..
मैं चकित सुनती रही
तुम्हारा एक एक अक्षर स्पृहणीय था
तुमने मेरे समर्पण को मान दिया
मेरे 'कुछ नही' को सम्मान दिया
अब 'कुछ नही' करने में मुझे कोई गुरेज़ नही
बस तुम प्रीत से मेरा मोल लगाते रहना
मान से मेरा श्रृंगार किया करना.