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अखबार हूँ मैं / लता अग्रवाल
Kavita Kosh से
कागज हूँ मैं
वही धवल सा
गला कर ख़ुद को
पेड़ों ने रचा है मुझको
कह दिया तुमने
महज एक अख़बार हूँ मैं
जो जलाता है खबरों का
अलाव
भड़काता है हिंसा
एक दृष्टि से मुझे देखने वालों
महज टुकड़ा नहीं
कागज का मैं
कभी मेरा भी रंग था उजला
अपने कलुषित मन के
कलम की स्याही
उढेल कर मुझ पर
कर दिया स्याह मुझको।
जमीन से लेकर अनन्त आसमान तक
साम्राज्य था मेरा
प्रियतम से जोड़े हैं
तार मन के मैंने ही
बरसात में बन नाव
बच्चों के चेहरे पर मुस्कान
सजाता रहा मैं कभी।
लेकर पुस्तक का आकार
भविष्य उनका सँवारता रहा
तो कभी बनकर
हवाई जहाज
उन्हें कल्पना के आसमान की
सैर कराता हूँ मैं।
महज अख़बार तक नहीं
सिमटा हूँ मैं
विशाल है मेरा संसार