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अगरचे इश्क़ में इक बे-ख़ुदी सी रहती है / 'शमीम' करहानी
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अगरचे इश्क़ में इक बे-ख़ुदी सी रहती है
मगर वो नींद भी जागी हुई सी रहती है
वही तो वजह-ए-तआरूफ़ है कोई क्या जाने
अदा अदा में जो इक बे-रूख़ी सी रहती है
बड़ी अजीब है शब-हा-ए-ग़म की ज़ुल्मत भी
दिए जलाओ मगर तीरगी सी रहती है
हज़ार दर्द-ए-फ़राएज़ हैं और दिल-ए-तन्हा
मिरे ख़ुलूस को शर्मिंदगी सी रहती है
‘शमीम’ ख़ून-ए-जिगर से उभारिए लेकिन
हर एक नक़्श में कोई कमी सी रहती है