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अगर बीज बनकर जमीं में न दबते / ब्रह्मदेव शर्मा

अगर बीज बनकर जमीं में न दबते।
कहो फिर कहाँ से गुलों से महकते॥

हवायें हमें भी डराने चलीं थीं।
अगर खौफ खाते तो जिंदा न रहते॥

लगी को बुझाना ज़रूरी बहुत था।
मुहब्बत में वरना न जीते न मरते॥

जमाना हमें भूल जाता अगर हम।
किसी की न सुनते न अपनी ही कहते॥

सफर ये सुहाना-सुहाना न होता।
मिलन में बिछड़ते चलन में ठहरते॥

असर था वफ़ा का दुआ का नहीं तो।
कहीं तुम भटकते कहीं हम बहकते॥

कदम दर कदम लड़खड़ाये बहुत पर।
सँभल ही गये हम सँभलते सँभलते॥