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अगर मस्जिद में ऐ ज़ाहिद वो मस्त-ए-नीम-ख़्वाब आवे / 'सिराज' औरंगाबादी
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अगर मस्जिद में ऐ ज़ाहिद वो मस्त-ए-नीम-ख़्वाब आवे
तिरे हर दान-ए-तस्बीह में बू-ए-शराब आवे
फ़जर हुई मुंतज़िर हूँ क़ासिद-ए-बाद-ए-सबा का मैं
किताबत आह की भेजा हूँ अब शायद जवाब आवे
ग़ज़ल-ख़्वाँ गर ख़ुश-आवाज़ी सीं आवे मुझ तरफ़ मोहन
रग-ए-जाँ सीं सदा-ए-नग़म-ए-तार-ए-रूबाब आवे
बजा है गर तुम्हारे नक्श-ए-पा की धूल उड़ने सीं
हर इक ज़र्रे का इस्तिक़बाल लेने आफ़्ताब आवे
अजब क्या नेमत-ए-दीदार साक़ी देख आँसू सीं
हमारे दीद-ए-नादीदा के मुँह में लुआब आवे
गुल अपने रंग पर मग़रूर बेजा है तिरे होते
पसीना लावे शबनम का अगर उस कूँ हिजाब आवे
‘सिराज’ उस कद्द-ए-मौजूँ के तसव्वुर में तअज्जुअ नहीं
कि फ़िक्र-ए-सरसरी सेती हर एक फ़र्द इंतिख़ाब आवे