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अगर मैं एक शहर होती / रश्मि प्रभा

अगर मैं एक शहर होती,
तो ईंटों की नहीं,
यादों की दीवारों से बनी होती,
हर मोड़ पर कोई पुरानी हँसी रखती,
हर नुक्कड़ पर कोई चुप सी बात।

मैं सड़कों पर सिर्फ यातायात नहीं,
कुछ अधूरे सपनों की परछाइयां चलाती,
बस अड्डों पर बैठी उम्मीदों को देखती,
और स्टेशनों पर विदा होते रिश्तों की धुन गुनगुनाती।

मेरे पार्क में सिर्फ बच्चे नहीं,
भविष्य के बीज खेलते,
और हर बूढ़ी बेंच पर
किसी पुराने प्रेम की सांसें टिकतीं।

अगर मैं एक शहर होती,
तो मैं बारिश से डरती नहीं,
बल्कि भीगती, झूमती, और
भीतर के सूखेपन को धोती।

मैं चौक-चौराहों पर
सिर्फ चहल-पहल नहीं,
कुछ फैसलों की ऊहापोह भी रखती,
जहाँ आत्मा हर बार पूछती-
“क्या सचमुच यहीं से मुड़ना था?”

मैं पुलों को जोड़ती ही नहीं,
उन पर टिकी थकी-थकी ज़िंदगियों को
कुछ देर ठहरने का बहाना देती।

अगर मैं एक शहर होती,
तो मेरी रातें नीली होतीं
चुपचाप
लेकिन जागती हुई,
हर खिड़की से
किसी अधूरी कहानी की तरह झांकती हुई।
और मेरी सुबहें?
वो हर दिन किसी नई शुरुआत की
तपती हुई कोशिश से उठतीं,
जैसे सूरज ने फिर से ठान लिया हो
कि इस शहर को उम्मीद से भर देना है।

अगर मैं एक शहर होती,
तो मैं किसी नक्शे की बंद परिधि में नहीं आती,
मैं फैलती - लोगों के भीतर,
उनके विचारों, उनकी विफलताओं,
और उनकी नन्ही नन्ही सफलताओं में।

कभी बनारस होती,
तो दीयों की तरह जलती
कभी मुंबई होती,
तो भागती, गिरती, उठती,
कभी जयपुर होती,
तो रंगों से खुद को समझाती,
और कभी दिल्ली -
तो इतिहास से बहस करती रहती।

अगर मैं एक शहर होती,
तो मैं सिर्फ जगह नहीं,
एक जीवित, धड़कता अनुभव होती,
जिसमें तुम रह सकते हो,
पर कभी भी पूरी तरह समझ नहीं सकते !