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अगर हर्फ़ों में ही है ख़ुदा / प्रेमचन्द गांधी

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वे घर से निकलती हैं
स्‍कूल-कॉलेज के लिए
रंगीन स्‍कार्फ़ या बुरके में
मोहल्‍ले से बाहर आते ही
बस या ऑटो रिक्‍शा में बैठते ही
हिदायतों को तह करते हुए
उतार देती हैं जकड़न भरे सारे नक़ाब

वे जिन क़िताबों को पढ़कर बड़ी होती हैं
उनमें कहीं ज़िक्र नहीं होता नक़ाबों का
इतने बेनक़ाब होते हैं उनकी क़िताबों के शब्‍द कि
अक्‍सर उन्‍हें रुलाई आती है
परदों में बन्द
अपने परिवार की स्त्रियों के लिए
उनकी ख़ामोश सुबकियों और सिसकियों में
आँसुओं का क़लमा है
‘ला इलाह इलिल्‍लाह’

कहाँ हो पैगम्बर हज़रत मोहम्‍मद साहेब
ये पढने जाती मुसलमान लड़कियाँ
आप ही को पुकारती हैं चुपचाप

आप आएँ तो इन्‍हें निजात मिले जकड़न से
अर्थ मिले उन शब्‍दों को जो नाजि़ल हुए थे आप पर

अगर हर्फ़ों में ही है ख़ुदा तो
वो जाहिर क्‍यों नहीं होता रोशनाई में ।