भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अगहन की रात / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
तुम नहीं ; और अगहन की ठण्डी रात !
संध्या से ही सूना-सूना, मन बेहद भारी है,
मुरझाया-सा जीवन-शतदल, कैसी लाचारी है !
- है जाने कितनी दूर सुनहरा प्रात !
खोकर सपनों का धन, आँखें बेबस बोझिल निर्धन
देख रही हैं भावी का पथ, भर-भर आँसू के कन,
- डोल रहा अन्तर पीपल का-सा पात !
है दूर रोहिणी का आँचल, रोता मूक कलाधर
खोज रहा हर कोना, बिखरा जुन्हाई का सागर
- किसको रे आज बताएँ मन की बात !