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अग्निगर्भ (कविता) / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

अभी धड़ी भर पहले जो आदमी गले में फनदा डाले
मरने को तैयार बैठा था
वह बीवी के गले से लिपटकर सोया है।

अब सूना पड़ा है आँगन;
बस्ती के लोग अब जिसके घर से लौट चुके हैं
वे पलकों की कच्ची ड्योढ़ी पर रोक रहे हैं
भूख से कुलबुलाती एक संगीन रात को।

पूरे दिन भी नहीं-
बस आधा दिन ही है यहाँ का जीवन।

शाम होते ही अँधेरे में तहाये
अछोर सागर में कूद पड़ो।
आँखें बन्द करो, कर लो बन्द आँखें
पेट की आग में रात का चेहरा मत देखो।

कौन है, जो इतनी रात गये पोखर की पगडंडी पर घूम रहे हैं।
-नहीं, यह अन्धकार टिकने वाला नहीं।
क़दमों की आहट से टूट-टूट जाती है रात की खामोशी।
-नहीं, इस तरह सिर झुकाकर मरना ठीक नहीं।

कौन जा रहा है-इतनी रात गये?
अरे भैया, हम राम हैं
और हम रहीम।