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अग्निचक्र: अग्नि-चित्र / तरुण

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बालपने में
अपने मटियाये-धूमधुमैले-से गाँव के
अपनी काची भीतों व खपरैल वाले
अपने घर के ममतालु चूल्हे के पास
माँ की गोद के पास हम बैठते थे।

मैं था बड़ा ऊधमी।
चूल्हे में से कपास के अधजले अग्नि-मुख डंठलों को, बनेष्ठियों को
दोनों हाथों से निकाल कर, दोनों हाथों की रगड़ी जाती
हथेलियों के बीच
मैं खूब घुमाता था गोलाकार-
स्वर्णिम-चंचल अग्नि-चक्र, अग्नि-चित्र कई आकारों के बनाने!

मेरे तकिये के गिलाफ पर
मेरी नींद व स्वप्न के फलक पर
अग्नि-कुसुमों की, अग्नि-चित्रों की ही तो डिजाइनें रही हैं।

रहा-मेरा सोना, खाना और पीना-
इन्हीं डिजाइनों का तो जीना!
जो था माँ के पास, मेरा मनोरंजनार्थ-
वही तो था मेरे शेष जीवन का यथार्थ!

1978