भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अचरज / जय गोस्वामी / रामशंकर द्विवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितना अचरज
घटता चला गया इस जीवन में !

वे सभी, सब लोग, जन सभी
कतार बान्धे खड़े हुए हैं
पहाड़ के वन में

दूसरी ओर तुम आ गई
टीले पर बैठी हुई हो।

देख रहा हूँ
चकित हैं मेरे प्राण
अब भी जीवन कहने को
जो कुछ बाकी है, उसका

सामान्य - सा सबकुछ
बिना कातर हुए
ढाल देना चाहता है
तुम्हारे सामने
इस समाप्तप्राय उम्र में

मूल बाँगला भाषा से अनुवाद : रामशंकर द्विवेदी