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अछि वसन्त तेँ की / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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अहंकारमे मातल शक्तिक पीटि लेअओ क्यौ डंका,
एक विभीषण की कय सकितथि, उजड़ि गेलनि ने लंका?
बगुला तथा बिलाड़ि कोना कहु पहिरत तुलसी माला,
रहत हुड़ारक संरक्षण मे रक्षित की गोशाला?
कब्र खूनि कय मानवता केँ गाड़ल गेल जतय अछि,
संविधानकेँ चिर्री-चिर्री फाड़ल गेल जतय अछि,
से की जानय मित्रताक सुख, की मानय समझौता,
ई वकाण्ड प्रत्याशा थिक, क्यो सुफल कतयसँ पौता?
निर्दोषक संहार करय आ नाम जेहादक लै अछि,
अनका चिन्तित कयनहि अछि आ अपनो हाथ मलै अछि।
विश्व भरिक प्रत्येक देशमे ई आतंक पसारय,
अपनो घरमे आगि लगा कय आनक घरकेँ जारय।
अहाँ रटैत रहू समतूले थिक काबा ओ काशी,
ओ दर्शविते रहल सदासँ करनी सत्यानाशी।
अहाँ उदार बनू, ओ किन्नहु रोच न ककरो मानत,
गेनजकाँ जतबा लतिअयबै तते ऊँच धरि फानत।
शुद्ध दूध सँ भने पटबिऔ, सुनत न एक्को रत्ती,
कुचकुच्ची कनियों की कमतै, थीक कबाछुक लत्ती।
पत्ती-पत्तीमे विष घोरल, रोम-रोम शैतानी,
तावतधरि दम धरत न जा धरि धरि नहि जयतै नानी।
कुकुरक नाङड़ि सोझ करत से लोक कतयसँ आनब,
गन्धपसारनि गमकै छै से ककरो कहने मानब?
जे कयने छै सीकी, सेहो बाजय सिटिया-सिटिया,
जनम-कालसँ नाचि रहल छै चानि उपर टिकटिकिया।
मूर्खतोक किछु सीमा छै, ई तकरो फानि चुकल अछि,
शत्रुताक ई चालि न छोड़त मनमे ठानि चुकल अछि।
एक बेर निर्णायक युद्धक करय पड़त तैयारी,
एकरा लै न पड़ोसी किछु आ ने मानय भैयारी।
धर्मेकेँ धकिया कय चाहय जेँ पापक संरक्षण,
तेँ लक्षित हो महाभारतक एक-एक टा लक्षण।
अछि नृशंसता अपनहु लज्जित देखि एकर किरदानी
महाविनाश अवश्यम्भावी, मानी वा नहि मानी।
पापक भार बढ़ल ततबा जे रहिरहि धरती कापय,
ताहूपर पाखण्डी उनटे, बेसुर राग अलापय।
अछि वसन्त तेँ की, कोकिल केर कण्ठ तदपि अवरूद्धे,
मज्जरसँ मातल माकन्दक मौसम परम विरूद्धे।