भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अजनबी / शाज़ तमकनत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिन भर लोग मिरे
कपड़ों से मिलते हैं
मेरी टोपी से
हाथ मिला कर हँसते हैं
मेरे जूते पहन के मेरी
साँसों पर चलते हैं

अपने आप से कब बिछड़ा था
दिन के इस अम्बोह में मुझ को
कुछ भी याद नहीं आता
रात को अपने नंग जिस्म के
बिस्तर पर
नींद नहीं आती