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अजन्मी बिटिया के मन की पुकार / मीना अग्रवाल

सपने में आई
ठुमकती-ठुमकती
रुनझुन करती
शरमाई, सकुचाई
नन्ही-सी परी !
धीरे से बोली
माँ के कान में
माँ ! तू मुझे जनम तो देती

मैं धरती पर आती
मुझे देख तू मुस्कुराती,
तेरी पीड़ा हरती
दादी की गोद में खेलती-मचलती
घुटवन चलती,
ख़ुशियों से बाबुल की
भरती मैं झोली,
पर जनम तो देती माँ !
तू जनम तो देती !

मैयाँ-मैयाँ चलती
बाबुल के अँगना में
डगमग डग धरती,
घर के हर कोने में
फूलों-सी महकती,
घर की अँगनाइयों में
रिमझिम बरसती,
माँ-बापू की बनती मैं दुलारी,
पर जनम तो देती
माँ ! तू जनम तो देती !

तोतली बोली में चिड़ियों को बुलाती,
दाना चुगाती
उनके संग-संग
मैं भी चहकती, दादी का भी
मन बहलाती, बाबा की मैं
कहलाती लाड़ली,
पर जनम तो देती माँ !
तू जनम तो देती !

आँगन बुहारती
गुड़ियों का ब्याह रचाती
बाबुल के खेत पर
रोटी पहुँचाती,
सबकी आँखों का
बनती मैं सितारा,
पर जनम तो लेती माँ !
जनम तो लेती !
ऊँचाइयों पर चढ़ती,
धारा के साथ-साथ
आगे को बढ़ती,
तेरे कष्टों को
मैं दूर करती,
तेरे तन-मन में
दूर तक उतरती,
जीवन के अभावों को
भावों से भरती,
तेरे जीवन की
बनती मैं आशा,
पर जनम तो देती माँ !
तू जनम तो देती !

ओढ़ चुनरिया
बनती दुल्हनियाँ
अपने भैया की
नटखट बहनियाँ,
ससुराल जाती
तो दोनों कुलों की
लाज मैं रखती,
देहरी दीपक बन घर को
भीतर और बाहर से
जगमग मैं करती,
सावन में मेहा बन
मन-आँगन भिगोती,
भैया की कलाई की
बनती मैं राखी, बाबुल के
तपते तन-मन को
देती मैं छाया,
पर जनम तो देती माँ !
जनम तो देती !

माँ बनती तो
तेरे आँगन को मैं
खुशियों से भरती,
बापू की आँखों की दृष्टि बनकर
रोशनी लुटाती,
तेरे आँगन का
बिरवा बनकर
तेरी बिटिया बनकर
माटी को मैं
चन्दन बनाती,
दुख दूर करती
सुख के गीत गाती,
तेरे और बापू के
बुढ़ापे की लकड़ी बनकर
डगमग जीवन का
सहारा मैं बनती,
उदास मन को
देती मैं दिलासा,
पर जनम तो लेती मैं
जनम तो लेती माँ !

जनम तो देती
तू मुझे जनम तो देती !