अजब मनुज की माया / अनामिका सिंह 'अना'
सड़कों का संजाल बिछाया, नहीं दीखती छाया।
छीने चिह्न सुहाग सृष्टि के, अजब मनुज की माया॥
अति विकास की होड़ प्रकृति से, छेड़छाड़ करवाये।
अग्नि बरसती दग्ध व्योम से, लुप्त विटप शुचि साये॥
धुंध धुँएँ की फैली चहुँ दिशि, धुँआ-धुँआ जग सारा।
जलस्तर है गया रसातल और शीर्ष पर पारा॥
चेत-चेत अब सोते मानव, विकट कहर बरपाया।
छीने चिह्न सुहाग सृष्टि के, अजब मनुज की माया॥
राहें तो अनगिन धरती पर, हैं तूने बिछवाई.
किंतु एक भी मति को जाती, देती नहीं दिखाई॥
तरु वृन्दों से रहित मेदिनी, दिखती हाय बिहूनी।
सर सुरसरि सूखे हैं जबसे, माँग मही की सूनी॥
आगत संतति पर निर्मोही, जुल्म पूर्व ही ढाया।
छीने चिह्न सुहाग सृष्टि के, अजब मनुज की माया॥
चौराहों का दृश्य विकट है, धक्कम-धक्का रेला।
स्थान रिक्त शेष न तिल भर, वाहन का चहुँ मेला॥
नहीं दीखती हैं चौपालें, ऊँचे भवन बने हैं।
हरियाली की हत्या में यह, मानव हाथ सने हैं॥
दर्पण तुझसे पूछे तूने, क्या खोया क्या पाया।
छीने चिह्न सुहाग सृष्टि के, अजब मनुज की माया॥
ताल-तलैया बात विगत की, भू का सीना छलनी।
दोष मढ़ रहे हम दूजे सिर, दुग्ध दुह रहे चलनी॥
वृक्षारोपण कागज पर है, शासन हड़पे राशी।
वक्ष धरा का दरका दरका, निर्जल आज उपासी॥
श्वास अधर पर अटकी भू की, छिद्र-छिद्र क्षत काया
छीने चिह्न सुहाग सृष्टि के, अजब मनुज की माया
माना संसाधन के द्वारा, बचत समय की होती।
संतति काटे वही फसल जो, पिछली पीढ़ी बोती॥
अत: निवेदन आज सभी से, 'अना' जोड़ कर करती।
अति दोहन से तौबा कर लो, हाय बचा लो धरती॥
सार सृष्टि की शुभता का है, इसमें सखा समाया।
छीने चिह्न सुहाग सृष्टि के, अजब मनुज की माया॥