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अजब हलचल कहाँ ऐसी थी पहले / विजय कुमार स्वर्णकार

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अजब हलचल कहाँ ऐसी थी पहले
नज़र अल्हड़ हुआ करती थी पहले

समझ पर बोझ बढ़्ता जा रहा है
ये तितली-सी उड़ा करती थी पहले

दरख़तों में जड़ों तक सनसनी है
हवा ऐसी कहाँ चलती थी पहले

गली की आँख पर पट्टी बँधी है
हर इक खिड़की खुला करती थी पहले

अधन्नी-से दिये जलते थे दिल में
चवन्नी चाँद-सी होती थी पहले

अकड़ते हैं कि अब हम आँकड़े हैं
हमारी ऐसी कब गिनती थी थी पहले

हमारी छेड़ बदनीयत है वरना
धरा यूँ लाल कब होती थी पहले