भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अज़ीज़ों तुम न कुछ उस को कहो हुआ सो हुआ / 'हसरत' अज़ीमाबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अज़ीज़ों तुम न कुछ उस को कहो हुआ सो हुआ
निपट ही तुंद है ज़ालिम की ख़ू हुआ सो हुआ

ख़ता से उस की नहीं नाम को ग़ुबार-ए-मलाल
मैं रो रो डाला है सब दिल से धो हुआ सो हुआ

मिर ख़ता या जफ़ा थी तिरी ये क्या है ज़िक्र
हुआ जो चाहिए फिर तो न हो हुआ सो हुआ

हँसे है दिल में ये ना-दर्द-मंद सब सुन सुन
तो दुख को इश्‍क़ के ऐ दिल न रो हुआ सो हुआ

सितम-गरो जो तुम्हें रहम की हो कुछ तौफ़ीक़
सितम का अपने तलाफ़ी करो हुआ सो हुआ

न सर-गुज़िश्‍त मिरी पूछ मुझ से कुछ ऐ बख़्त
तू अपने ख़्वाब-ए-फराग़त में सो हुआ सो हुआ

मोहब्बत एक तरफ़ की नरी समाजत है
मैं छोडूँ हूँ तिरी अब जुस्तुजू हुआ सो हुआ

बयान-ए-हाल से रूकता है ‘हसरत’ अब यारो
न पूछो उस से न कुछ तुम कहो हुआ सो हुआ