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अजीब सानेहा गुज़रा है इन घरों पे कोई / जावेद अनवर

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अजीब सानेहा गुज़रा है इन घरों पे कोई
के चौंकता ही नहीं अब तो दस्तकों पे कोई

है बात दूर की मंज़िल का सोचना अब तो
के रस्ता खुलता नहीं है मुसाफिरों पे कोई

उजाड़ शहर के रस्ते जिन्हें सुनाते हैं
यक़ीन करता है कब उन कहानियों पे कोई

वो ख़ौफ़ है के बदन पत्थरों में ढलने लगे
अजब घड़ी के दुआ भी नहीं लबों पे कोई

हवा भी तेज़ न थी जब परिंदा आ के गिरा
नहीं था ज़ख़्म भी ‘जावेद’ इन परों पे कोई