अज्ञेय की सेलमा बनाम बाबू सलीम / अवतार एनगिल

हर रोज़
बेपनाह भीड़ इस अजनबी द्वीप पर
मरती है,जीती है
जीती है,मरती है

हर रोज़
किसी एक शहर में
किसी बाढ़ घिरे टीले पर
अज्ञेय की सेलमा
नफे का व्यापार करती है

जनसमूह का एक सैलाब
एक निर्जन बर्फीले शहर में
तलाश रहा है
एक अंजली धूप
और भूख का कुलबुलाता पोष
प्रतीक्षा कर रहा है
कि कानों में गेहूं के कर्णफूल सजाये
आयेगा
सजीला बैसाख

इधर
बिना छत के एक घर में
अपने फूटे माथे पर
अपनी मूर्खता चिपका कर
बाबू सलीम
अपनी बच्ची का जन्म दिन मनाता है
हंसता है, गाता है
नाचता है, ताली बजाता है

और उधर
बहीखाते पर लकीरें लगा
चालाक सेलमा गिनती करती है
गुदामों में कैद
गेहूं की बोरियों की

ऐसे में
होने या न होने के प्रश्न पर
बेताल एक प्रश्न चिन्ह लगाता है
और पूछता है
हठी बिक्रमार्क से :

'बताओ तो राजा !
भीड़ के इस सैलाब ने
पेट के न भरने वाले घाव ने
क्यों भूत को आदमी बना दिया है?
और, क्यों आदमी को भूत।

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