भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अतिक्रमण / योगेंद्र कृष्णा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


उसकी रगों में
निर्बंध बह रहा हूं
मैं समुंदर के किनारों की तरह

बंजारी उन हवाओं के साथ
दिन के उजाले में रची
उन साजिशों की तरह

निरंतर उठते उस ज्वार की तरह
पहाड़ की ऊंचाइ से गिरते
उस जल-प्रपात की तरह
जो अपनी हदों को पार कर
लौट आता है हर बार
अपने ही वजूद में

एक बार फिर से
खुद के वजूद के
अतिक्रमण को तैयार...