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अतिरंजन की भूमिका / नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती

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अब जो भी कुछ जाता है... चला ही जाता है।
स्मृति की डाल से खिरता है जो कुछ
हमेशा के लिए खिर जाता है।
अब सारे सवाल
केवल एक सहज उत्तर में
ख़ुश हो जाना चाहते हैं।
लेकिन वह ‘सिर्फ़ एक उत्तर नहीं मिलता।

बचपन के साथियो!
अब तुम लोगों के चेहरे
काँच की ओट से धुँधले दिखाई देते हैं।
अब पीछे मुड़कर भीख माँगने की मुद्रा में
सहसा हाथ पसारने पर
किसी को आश्चर्य नहीं होता।
चिड़िया पकड़ने के लिए
छत की मुण्डेर से किसने छलाँग लगाई थी?
जिसके लिए एक दिन
भीतर भयानक उथल-पुथल मची हुई थी
आज उसकी याद भी नहीं आती।

अब जो कुछ भी झरता है ... हमेशा के लिए झर जाता है
अब जो भी कुछ जाता है, चला ही जाता है,
अब सारे कमरों को नए सिरे से रँगना पड़ेगा!

मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी