अतीतजीवी / भोला पंडित प्रणयी
सुबह की धूप सेंकती मेरी देह
अब गरमा गई है
और तेरी याद / मुझे भरमा गई है
गुलमोहर की छाँह में पसरी
चितकबरी धूप की तरह / तेरी याद
मुझे शरमा गई है ।
मेरा मानसरोवर जम गया है
और मेरा राजहंस
पंख फड़फड़ाने लगा है ।
तुम अब भी / उसी परिचित गली में खड़ी
लुका-छिपी के खेल में / प्रतीक्षारत हो
और मैंने पीछे से
अपनी कोमल हथेलियों से
तुम्हारी आँखें बंद कर दी हैं ।
और तुमने / मेरी चिरपरिचित गंध से
मुझे पहचान लिया है ।
तुम्हारी धड़कन तेज़ हो गई है
सागर की लहरों की तरह ।
यह सच है
हमारा मिलन जहाँ भी होता
वहाँ हमारा घर नहीं होता
हम अकेले होते / शब्द मौन होते
और साँसें विरल हो
हमारे जीवन को संजीवित रखतीं ।
आज समय की नदी में
मेरी व्यथाएँ तिरती हैं
कई उपधाराओं से मुड़कर भी
तुम तक नहीं पहुँच पाना
तुम्हारी याद / मेरे दुःख
पानी की तरह बहते हैं ।