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अथ कथा प्रवेश / अनुज लुगुन

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अब तक यह बताया जाता रहा है और जाना जाता रहा है कि बाघ का ठिकाना जंगल है। यह मानव सभ्यता के इतिहास का एकांगी और एकतरफा ज्ञान रहा है, जिसने एक वर्चस्व को जन्म दिया और हम उस वर्चस्व का लगातार पालन करते रहे हैं। इस वर्चस्व का जिसने प्रतिरोध किया उसे मानवीयता के दरजे से भी पदच्युत कर दिया गया। चूँकि अब जंगल तेज़ी से समाप्त हो रहे हैं और इसलिए बाघ का ठिकाना और स्वरूप भी बदल गया है। अब एक तरफ़ जंगल, पहाड़ और नदियाँ हैं तो दूसरी तरफ़ बाघ
है। एक तरफ़ बाघों की तस्करी हो रही है, दूसरी ओर बाघों की जनसंख्या बढ़ाने के लिए जंगलों में सरकारी ‘बाघ प्रजनन परियोजनाएँ’ चलाई जा रही हैं।

कल की ही बात है। सुगना मुण्डा की बेटी ने मनुष्यों के एक समूह को भूखे बाघ के हिंसक आवेग के साथ अपने गाँव में हमला करते हुए देखा। वह घबराई, ‘‘इतने सारे ‘कुनुईल’ कहाँ से आ गए? चानर-बानर, उलट्बग्घा कहाँ से आ गए?’’ वह अपने समाज
में अपने भाइयों की ओर दौड़ी, वहाँ भी उसने कुछ ‘चानर-बानर’ को टहलते हुए देखा। वह डर कर उनके हमलों से बचने के बारे में योजना बनाने लगी।

उसने देखा कि एक तरफ तो समूहों में आए बाघ उसे और उसके समुदाय को ‘जंगली’ सम्बोधन देकर घृणा प्रकट कर रहे थे वहीं दूसरी ओर उसने देखा अपने लोगों के बीच से ही ‘चानर-बानर’ बनने वाले शिकार की खोज में घूम रहे हैं। उसने सोचा ‘चूँकि उसके पुरखे, पिता और भाई ऐतिहासिक हैं इसलिए वह जो कुछ देख रही है वह स्वप्न नहीं हो सकता है और न ही कोई साहित्यिक परिकल्पना।