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अथ राग नट नारायण / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल

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अथ राग नट नारायण

(गायन समय रात्रि 9 से 12)

291. हितोपदेश। गजताल

ताको काहे न प्राण सँभाले,
कोटि अपराध कल्प के लागे, माँहिं महूरत टाले॥टेक॥
अनेक जन्म के बन्धन बाढ़े, बिन पावक फँद जालै।
ऐसो है मन नाम हरी को, कबहूँ दुःख न सालै॥1॥
चिन्तामणी युक्ति सों राखे, ज्यों जननी सुत पालै।
दादू देख दया करे ऐसी, जन को जाल न रालै॥2॥

292. विरह। जयमंगल ताल

गोविन्द कबहूँ मिले पिव मेरा,
चरण-कमल क्यों ही कर देखूँ, राखूँ नैनहुँ नेरा॥टेक॥
निरखण का मोहि चाव घणेरा, कब मुख देखूँ तेरा।
प्राण मिलण को भयी उदासी, मिल तूं मीत सवेरा॥1॥
व्याकुल तातैं भई तन देही, शिर पर यम का हेरा।
दादू रे जन राम मिलण को, तप ही तन बहुतेरा॥2॥

293. राजमृगांक ताल

कब देखूँ नैनहुँ रेख रती, प्राण मिलण को भई मती।
हरि सों खेलूँ हरी गती, कब मिल हैं मोहि प्राण पती॥टेक॥
बल कीती क्यों देखूँगी रे, मुझ माँहीं अति बात अनेरी।
सुन साहिब इक विनती मेरी, जन्म-जन्म हूँ दासी तेरी॥1॥
कहुँ दादू सो सुणसी सांई, हौं अबला बल मुझ में नाँहीं।
करम करी घ्ज्ञर मेरे आई, तो शोभा पिव तेरे तांई॥2॥

294. राजमृगांक ताल

नीके मोहन सौं प्रीति लाई,
तन-मन प्राण देत बजाई, रंग-रस के बणाई॥टेक॥
येही जीयरे वेही पीवरे, छोर्यो न जाई माई।
बाण भेद के देत लगाई, देखत ही मुरझाई॥1॥
निर्मल नेह पिया सौं लागो, रती न राखी काई।
दादू रे तिल में तन जावे, संग न छाडूँ माई॥2॥

295. परमेश्वर महिमा। राज विद्याधर ताल

तुम बिन ऐसे कौण करे,
गरीब निवाज गुसांई मेरो, माथे मुकुट धरे॥टेक॥
नीच ऊँच ले करे गुसांई टार्यो हूँ न टरे।
हस्त कमल की छाया राखे, काहूँ थै न डरे॥1॥
जाकी छोत जगत् को लागे, तापर तूं हीं ढरे।
अमर आप ले करे गुसांई, मार्यो हूँ न मरे॥2॥
नामदेव कबीर जुलहा, जन रैदास तरे।
दादू बेगि बार नहिं लागे, हरि सौं सबै सिरे॥3॥

296. मंगलाचरण। राज विद्याधर ताल

नमो-नमो हरि नमो-नमो
ताहि गुसांई नमो-नमो, अकल निरंजन नमो-नमो।
सकल वियापी जिहिं जग कीन्हा, नारायण निज नमो-नमो॥टेक॥
जिन सिरजे जल शीश चरण कर, अविगत जीव दियो।
श्रवण सँवारि नैन रसना मुख, ऐसो चित्र कियो॥1॥
आप उपाइ किये जग जीवन, सुर नर शंकर साजे।
पीर पैगम्बर सिद्ध अरु साधक अपणे नाम निवाजे॥2॥
धरती-अम्बर चंद-सूर जिन, पाणी पवन किये।
भानण धड़न पलक में केते, सकल सँवार लिये॥3॥
आप अखंडित खंडित नाँहीं, सब सम पूर रहे।
दादू दीन ताहि नइ वंदित, अगम अगाध कहे॥4॥

297. हैरान। उत्सव ताल

हम थैं दूर रही गति तेरी,
तुम हो तैसे तुम हीं जानो, कहा बपरी मति मेरी॥टेक॥
मन तैं अगम दृष्टि अगोचर, मनसा की गम नाँहीं।
सुरति समाइ बुद्धि बल थाके, वचन न पहुँचे ताँहीं॥1॥
योग न ध्यान ज्ञान गम नाँहीं, समझ-समझ सब हारे।
उनमनी रहत प्राण घट साधे, पार न गहत तुम्हारे॥2॥
खोजि परे गति जाइ न जाणी, अगह गहन कैसे आवे।
दादू अविगत देहु दया कर, भाग बड़े सो पावे॥3॥

॥इति राग नट नारायण सम्पूर्ण॥