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अथ राग मारू (मरवा) / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल

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अथ राग मारू (मरवा)

(गायन समय सायंकाल 6 से 9 रात्रि)

143. उपदेश। झपताल

मना भज राम नाम लीजे,
साधु संगति सुमिर-सुमिर, रसना रस पीजे॥टेक॥
साधु जन सुमिरन कर, केते जप जागे।
आगम-निगम अमर किये, काल कोई न लागे॥1॥
नीच-ऊँच चिन्तन कर, शरणागति लीये।
भक्ति मुक्ति अपनी गति, ऐसे जन कीये॥2॥
केते तिर तीर लागे, बंधन भव छूटे।
कलि मल विष जुग-जुग के, राम नाम खूटे॥3॥
भरम-करम सब निवार, जीवन जप सोई।
दादू दुख दूर करण, दूजा नहिं कोइ॥4॥

144. झपताल

मना जप राम नाम कहिए,
राम नाम मन विश्राम, संगी सो गहिए॥टेक॥
जाग-जाग सोवे कहा, काल कंध तेरे।
बारंबार कर पुकार, आवत दिन नेरे॥1॥
सोवत-सोवत जन्म बीते, अजहूँ न जीव जागे।
राम संभार नींद निवार, जन्म जरा लागे॥2॥
आश पास भरम बंध्यो, नारी गृह मेरा।
अंत काल छाड चल्यो, कोई नहिं तेरा॥3॥
तज काम क्रोध मोह माया, राम-राम करणा।
जब लग जीव प्राण पिंड, दादू गह शरणा॥4॥

145. विरह। अड़डुताल

क्यों विसरे मेरा पीव पियारा, जीव का जीवन प्राण हमारा॥टेक॥
क्यों कर जीवे मीन जल बिछुरे, तुम बिन प्राण सनेही।
चिन्तामणि जब कर तैं छूटे, तब दुख पावे देही॥1॥
माता बालक दूध न देवे, सो कैसे कर पीवे।
निर्धन का धन अनत भुलाना, सो कैसे कर जीवे॥2॥
वरषहु राम सदा सुख अमृत, नीझर निर्मल धारा।
प्रेम पियाला भर-भर दीजे, दादू दास तुम्हारा॥3॥

146. अत्यन्त विरह (गुजराती भाषा) अड़डुताल

कोई कहो रे म्हारा नाथ ने, नारी नेण निहारे वाट रे॥टेक॥
दीन दुखिया सुन्दरी, करुणा वचन कहे रे।
तुम बिन नाह विरहणि व्याकुल, केम कर नाथ रहे रे॥1॥
भूधर बिन भावे नहिं कोई, हरि बिन और न जाणे रे।
देह गृह हूँ तेने आपूँ जे कोई गोविन्द आणे रे॥2॥
जगपति ने जोवा ने काजे, आतुर थई रही रे।
दादू ने देखाड़ो स्वामी, व्याकुल होइ गई रे॥3॥

147. विरह विलाप। पंजाबी त्रिताल

कबहूँ ऐसा विरह उपावे रे, पिव बिन देखे जिव जावे रे॥टेक॥
विपति हमारी सुनहु सहेली, पवि बिन चैन न आवे रे।
ज्यों जल भीन मीन तन तलफे, पिव बिन वज्र बिहावे रे॥1॥
ऐसी प्रीति प्रेम की लागे, ज्यों पंखी पीव सुनावे रे।
त्यों मन मेरा रहै निश वासर, कोई पीव को आण मिलावे रे॥2॥
तो मन मेरा धीरज धरही, कोई आगम आण जनावे रे।
तो सुख जीव दादू का पावे, पल पिवजी आप दिखावे रे॥3॥

148. गुजराती भाषा। पंजाबी त्रिताल

अमे विरहणिया राम तुम्हारड़िया,
तुम बिन नाथ अनाथ, कांइ बिसारड़िया॥टेक॥
अपने अंग अनल पर जाले, नाथ निकट नहिं आवे रे।
दर्शन कारण विरहनि व्याकुल, और न कोई भावे रे॥1॥
आप अपरछन अमने देखे, आपणपो, न दिखाड़े रे।
प्राणी पिंजर लेइ रह्यो रे, आड़ा अंतर पाड़े रे॥2॥
देव-देव कर दर्शन माँगें, अन्तरजामी आपे रे।
दादू विरहणि वन-वन ढूँढे, यह दुख कांइ न कापे रे॥3॥

149. विरह प्रश्न। राज विद्याधर ताल

पंथीड़ा बूझे विरहणी, कहिनैं पीव की बात।
कब घर आवे कब मिलूँ, जोऊ दिन रात, पंथीड़ा॥टेक॥
कहाँ मेरा प्रीतम कहाँ बसे, कहाँ रहे कर बास।
कहँ ढूँढूँ कहँ पाइये, कहाँ रहै किस पास, पंथीड़ा॥1॥
कवण देश कहँ जाइए, कीजे कौण उपाय।
कौण अंग कैसे रहै, कहाँ करै समझाइ, पंथीड़ा॥2॥
परम सनेही प्राण का, सो कत देहु दिखाइ।
जीवनि मेरे जीवकी, सो मुझ आन मिलाइ, पंथीड़ा॥3॥
नैन न आवे नींदड़ी, निश दिन तलफत जाइ।
दादू आतुर विरहणी, क्यों कर रैणि विहाइ, पंथीड़ा॥4॥

150. समुच्चय उत्तर। राज विद्याधर ताल

पंथीड़ा पंथ पिछाणी रे पीव का, गहि विरह की बाट।
जीवत मृतक ह्वै चले, लंघे औघट घाट, पंथीड़ा॥टेक॥
सद्गुरु शिर पर राखिए, निर्मल ज्ञान विचार।
प्रेम भक्ति करा प्रीति सौं, सन्मुख सिरजनहार, पंथीड़ा॥1॥
पर आतम सौं आतमा, ज्यों जल जलहिं समाइ।
मन ही सौं मन लाइए, लै के मारग जाइ, पंथीड़ा॥2॥
तालाबेली ऊपजे, आतुर पीड़ा पुकार।
सुमिर सनेही आपणा, निश दिन बारंबार, पंथीड़ा॥3॥
देख-देख पग राखिए, मारग खांडे धार।
मनसा वाचा कर्मना, दादू लंघे पार, पंथीड़ा॥4॥

151. अनुक्रम से उत्तर। राजमृगांक ताल

साध कहैं उपदेश, विरहणी
तन भूले तब पाइए, निकट भया उपदेश, विरहणी॥टेक॥
तुम हीं माँहीं ते बसैं, तहाँ रहे कर बास।
तहँ ढूँढे पिव पाइए, जीवन जिव के पास, विरहणी॥1॥
परम देश तहँ जाइए, आतम लीन उपाय।
एक अंग ऐसे रहै, ज्यों जल जलहि समाइ, विरहणी॥2॥
सदा संगाती आपणा, कबहूँ दूर न जाइ।
प्राण सनेही पाइए, तन-मन लेहु लगाइ, विरहणी॥3॥
जागैं जगपति देखिए, परकट मिलि है आइ।
दादू सम्मुख ह्वै रहै, आनन्द अंग न माइ, विरहणी॥4॥

152. विरह विनती। मकरन्द ताल

गोविन्दा गाइबा दे रे आडड़ी आन निवार, गोविन्दा गाईबा दे।
अन दिन अंतर आनंद कीजे, भक्ति प्रेम रस सार रे॥टेक॥
अनुभव आतम अभय एक रस, निर्भय कांइ न कीजे रे।
अमी महारस अमृत आपे, अम्हे रसिक रस पीजे रे॥1॥
अविचल अमर अखै अविनाशी, ते रस कांइ द दीजे रे।
आतम राम अधार अम्हारो, जनम सफल कर लीजै रे॥2॥
देव दयाल कृपाल दामोदर, प्रेम बिना क्यों रहिए रे।
दादू रँग भर राम रमाड़ो, भक्त बछल तूं कहिए रे॥3॥

153. (गुजराती) मकरन्द ताल

गोविन्दा जोइबा देरे,
जे बरजैं ते वारि रे, गोविन्दा जोइबा दे रे।
आदि पुरुष तूं अछय अम्हारो, कंत तुम्हारी नारी रे॥टेक॥
अंगैं संगैं रँगैं रमिये, देवा दूर न कीजै रे।
रस माँहीं रस इम थइ रहिए, ये सुख अमने दीजे रे॥1॥
सेजड़िये सुख रँग भर रमिये, प्रेम भक्ति रस लीजे रे॥2॥
समर्थ स्वामी अंतरयामी, बार-बार कांइ बाहे रे।
आदैं अंतैं तेज तुम्हारो, दादू देखे गाये रे॥3॥

154. शूल ताल

तुम्ह सरसी रंग रमाड़,
आप अपरछन थई करी, मने मा भरमाड़॥टेक॥
मन भोलवे कांइ थई बेगलो, आपणपो देखाड़।
केम जीवूँ हूँ एकली, विरहणिया नार॥1॥
मने बाहिश मा अलगो थई, आत्मा उद्धार।
दादू सूँ रमिये सदा, येणे परैं तार॥2॥

155. काल चेतावनी। तुरंग लील ताल

जाग रे किस नींदड़ी सुता,
रैण बिहाई सब गई, दिन आइ पहूँता॥टेक॥
सो क्यों सोवे नींदड़ी, जिस मरणा होवे रे।
जौरा वैरी जागणा, जीव तूँ क्यों सोवे रे॥1॥
जाके शिर पर जम खड़ा शर सांधे मारे रे।
सो क्यों सोवे नीदड़ी, कहि क्यों न पुकारे रे॥2॥
दिन प्रति निश काल झंपैं, जीव न जागे रे।
दादू सूता नींदड़ी, उस अंग न लागे रे॥3॥

156. तुरंग लील ताल

जागरे सब रैण बिहाँणी, जाइ जन्म अंजली को पाणी॥टेक॥
घड़ी-घड़ी घड़ियाल बजावे, जे दिन जाइ सो बहुरि न आवे॥1॥
सूरज-चंद कहैं समझाइ, दिन-दिन आयु घटंती जाइ॥2॥
सरवर पाणी तरुवर छाया, निश दिन काल गरासे काया॥3॥
हंस बटाऊ प्राण पयाना, दादू आतम राम न जाना॥4॥

157. चौताल

आदि काल अंत काल, मध्य काल भाई।
जन्म काल जरा काल, काल संग सदाई॥टेक॥
जागत काल सोवत काल, काल झंपै आई।
काल चलत काल फिरत, कबहूँ ले जाई॥1॥
आवत काल जात काल, काल कठिन खाई।
लेत काल देत काल, काल ग्रसे धाई॥2॥
कहत काल सुनत काल, करत काल सगाई।
काम काल क्रोध काल, काल जाल छाई॥3॥
काल आगे काल पीछे, काल संग समाई।
काल रहित राम गहित, दादू ल्यौ लाई॥4॥

158. हितोपदेश। त्रिताल

तो को केता कह्या मन मेरे,
क्षण इक माँहीं जाइ अने रे, प्राण उधारी लेरे॥टेक॥
आगे है मन खरी बिमासणि, लेखा माँगे दे रे।
काहे सोवे नींद भरी रे, कृत विचारै तेरे॥1॥
ते पर कीजे मन विचारे, राखे चरणहु नेरे।
रती एक जीवन मोहि न सूझे, दादू चेत सवेरे॥2॥

159. त्रिताल

मन वाहला रे कछू विचारी खेल, पड़शे रे गढ़ भेल॥टेक॥
बहु भांतैं दुख देइगा वाहला, ज्यों तिल माँ लीजे तेल।
करणी ताहरी सोधसी, होसी रे शिर हेल॥1॥
अब हीं तैं कर लीजिए, रे बाहला, सांईं सेती मेल।
दादू संग न छाड़ी पीव का, पाइ है गुण की बेल॥2॥

160. उदीक्षण ताल

मन बावरे हो अनत जनि जाय,
तो तूं जीवे अमी रस पीवे, अमर फल काहे न खाय॥टेक॥
रहु चरण शरण सुख पावे, देखहु नैन अघाय।
भाग तेरे पीव नेरे, थीर थान बताइ॥1॥
संग तेरे रहै घेरे, सहजैं अंग समाइ।
शरीर माँहीं शोध सांईं, अनहद ध्यान लगाइ॥2॥
पीव पास आवे सुख पावे, तन की तपत बुझाइ।
दादू रे जहँ नाद उपजे, पीव पास दिखाइ॥3॥

161. भ्रम विध्वंसन। उदीक्षण ताल

निरंजन अंजन कीन्हा रे, सब आतम लीन्हा रे॥टेक॥
अंजन माया अंजन काया, अंजन छाया रे।
अंजन राते अंजन माते, अंजन पाया रे॥1॥
अंजन मेरा अंजन तेरा, अंजन मेला रे।
अंजन लीया अंजन दीया, अंजन खेला रे॥2॥
अंजन देवा अंजन सेवा, अंजन पूजा रे।
अंजन ज्ञाना अंजन ध्याना, अंजन दूजा रे॥3॥
अंजन वक्ता अंजन श्रोता, अंजन भावे रे।
अंजन राम निरंजन कीन्हा, दादू गावे रे॥4॥

162. निज वचन महिमा। चौताल

ऐन बैन चैन होवे, सुनतां सुख लागे रे।
तीनों गुण त्रिविधि तिमर, भरम करम भागे रे॥टेक॥
होइ प्रकाश अति उजास, परम तत्त्व सूझे।
परम सार निर्विकार, विरला कोई बूझे॥1॥
परम थान सुख निधान, परम शून्य खेले।
सहज भइ सुख समाइ, जीव ब्रह्म मेले॥2॥
अगम निगम होइ सुगम, दुस्तर तिरि आवै।
आदि पुरुष दर्श परस, दादू सो पावै॥3॥

163. साधु सांई हेरे। त्रिताल

कोई राम का राता रे, कोई प्रेम का माता रे॥टेक॥
कोई मन को मारे रे, कोई तन को तारे रे,
कोई आप उबारे रे॥1॥
कोई जोग जुगंता रे, कोई मोक्ष मुकंता रे,
कोई है भगवंता रे॥2॥
कोई सद्गति सारा रे, कोई तारणहारा रे,
कोई पीव का प्यारा रे॥3॥
कोई पार को पाया रे, कोई मिल कर आया रे,
कोई मन का भाया रे॥4॥
कोई है बड़ भागी रे, कोई सेज सुहागी रे,
कोई है अनुरागी रे॥5॥
कोई सब सुख दाता रे, कोई रूप विधाता रे,
कोई अमृत खाता रे॥6॥
कोई नूर पिछाणैं रे, कोई तेज को जाणैं रे,
कोई ज्योति बखाणैं रे॥7॥
कोई साहिब जैसा रे, कोई सांई तैसा रे,
कोई दादू ऐसा रे॥8॥


164. साधु लक्षण। दीपचन्दी

सद् गति साधवा रे, सन्मुख सिरजनहार।
भव जल आप तिरैं ते तारैं, प्राण उधारणहार॥टेक॥
पूरण ब्रह्म राग रँग राते, निर्मल नाम अधार।
सुख संतोष सदा सत संयम, मति गति वार न पार॥1॥
जुग-जुग राते जुग-जुग माते, जुग-जुग संगति सार।
जुग-जुग मेला जुग-जुग जीवन, जुग-जुग ज्ञान विचार॥2॥
सकल शिरोमणि सब सुख दाता, दुर्लभ इहिं संसार।
दादू हंस रहै सुख सागर, आये पर उपकार॥3॥

165. परिचय उत्साह मंगल। दीपचन्दी

अम्ह घर पाहुणा ये, आव्या आतम राम॥टेक॥
चहुँ दिशि मँगलाचार, आनंद अति घणाये।
वरत्या जै जैकार विरद वधावणा ये॥1॥
कनक कलश रस माँहिं, सखी भर ल्यावज्यो ये।
आनन्द अंग न माइ, अम्हारे आवज्यो ये॥2॥
भावै भक्ति अपार, सेवा कीजिए ये।
सन्मुख सिरजनहार, सदा सुख लीजिए ये॥3॥
धन्य अम्हारा भाग, आव्या अम्ह भणी ये।
दादू सेज सुहाग, तूं त्रिभुवन धणी ये॥4॥

166. फरोदस्त ताल

गावहु मँगलाचार, आज वधावणा ये।
स्वप्नों देख्यो साँच, पीव घर आवणा ये॥टेक॥
भाव कलश जल प्रेमका, सब सखियन के शीश।
गावत चल बधावणा, जै जै जै जगदीश॥1॥
पदम कोटि रवि झिलमिले, अंग-अंग तेज अनंत।
विकस वदन विरहणि मिली, घर आये हरि कंत॥2॥
सुन्दरि सुरति शृंगार कर, सन्मुख परसे पीव।
मो मन्दिर मोहन आविया, वारूँ मन-मन जीव॥3॥
कमल निरंतर नरहरी, प्रकट भये भगवंत।
जहँ विरहणि गुण बीनवे, खेले फाग वसंत॥4॥
वर आयो विरहणि मिली, अरस-परस सब अंग।
दादू सुन्दरि सुख भया, जुग-जुग यहु रस रंग॥5॥

॥इति राग मारू (मारवा) सम्पूर्ण॥