अथ विरह का अंग / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल
अथ विरह का अंग
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवतः।
वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः॥1॥
रतिवंती आरति करे, राम सनेही आव।
दादू औसर अब मिलै, यहु विरहनि का भाव॥2॥
पीव पुकारे विरहनी, निश दिन रहै उदास।
राम राम दादू कहै, ताला-वेली प्यास॥3॥
मन चित चातक ज्यौं रटै, पिव पिव लागी प्यास।
दादू दरशन कारणै, पुरवहु मेरी आस॥4॥
दादू विरहनि दुख कासनि कहे, कासनि देइ संदेश।
पंथ निहारत पीव का, विरहनि पलटे केश॥5॥
विरहनि दुख कासनि कहै, जानत है जगदीश।
दादू निशदिन विरही है, विरहा करवत शीश॥6॥
शब्द तुम्हारा ऊजला, चिरिया क्यों कारी।
तुंहीं तुंहीं निश दिन करूँ, विरहा की जारी॥7॥
विरहनी-विलाप
विरहनि रोवे रात-दिन, झूरै मन ही माँहि।
दादू औसर चल गया, प्रीतम पाये नाँहि॥8॥
दादू विरहनि कुरलै कूंज ज्यों, निशदिन तलफत जाय।
राम सनेही कारणै, रोवत रैनि बिहाय॥9॥
पासे बैठा सब सुने, हमको जवाब न देय।
दादू तेरे शिर चढे, जीव हमारा लेय॥10॥
सबको सुखिया देखिए, दुखिया नाँहीं कोय।
दुखिया दादू दास हे, ऐन परस नहिं होय॥11॥
साहिब मुख बोले नहीं, सेवक फिरे उदास।
यहु वेदन जिय में रहे, दुखिया दादू दास॥12॥
पिव बिन पल-पल जुग भया, कठिन दिवस क्यों जाय।
दादू दुखिया राम बिन, काल रूप सब खाय॥13॥
दादू इस संसार में, मुझ सा दुखी न कोइ।
पीव मिलन के कारणैं, मैं जल भरिया रोइ॥14॥
ना वह मिले न मैं सुखी, कहो क्यों जीवन होय।
जिन मुझ को घायल किया, मेरी दारू सोय॥15॥
दरशन कारण विरहनी, वैरागनि होवे।
दादू विरह वियोगिनी, हरि मारग जोवे॥16॥
विरह उपदेश
अति गति आतुर मिलन को, जैसे जल बिन मीन।
सो देखे दीदार को, दादू आतम लीन॥17॥
छिन विछोह
राम विछोही विरहनी, फिर मिलण न पावे।
दादू तलफै मीन ज्यों, तुझ दया न आवे॥18॥
दादू जब लग सुरति समिटे नहीं, मन निश्चल नहीं होहि।
तब लग पिव परसे नहीं, बड़ी विपति यहु मोहि॥19॥
ज्यों अमली के चित अमल है, शूरे के संग्राम।
निर्धन के चित धन बसे, यौं दादू के राम॥20॥
ज्यों चातक के चित जल बसे, ज्यों पानी बिन मीन।
जैसे चन्द चकोर है, ऐसे दादू हरि सौं कीन॥21॥
ज्यों कुंजर के मन वन बसे, अनल पक्षि आकास।
यों दादू का मन राम सौं, ज्यों वैरागी वनखंड वास॥22॥
भँवरां लुबधी वास का, मोह्या नाद कुरंग।
यों दादू का मन राम सौं, ज्यों दीपक ज्योति पतंग॥23॥
श्रवणा राते नाद सौं, नैन राते रूप।
जिह्वा राती स्वाद सौं, त्यों दादू एक अनूप॥24॥
विरह उपदेश
देह पियारी जीव को, निशि दिन सेवा माँहि।
दादू जीवन मरण लों, कबहुँ छाड़ी नाँहि॥25॥
देह पियारी जीव को, जीव पियारा देह।
दादू हरि रस पाइये, जे ऐसा होय सनेह॥26॥
दादू हरदम माँहि दिवान, सेज हमारी पीव है।
देखूँ सो सुबहान, यह इश्क हमारा जीव है॥27॥
दादू हरदम माँहि दिवान, कहूँ दरूने दरद सैं।
परद दरूने जाइ, जब देखूँ दीदार कौं॥28॥
विरह विनती
दादू दरूने दरदवंद, यहु दिल दरद न जाय।
हम दुखिया दीदार के, महरबान दिखलाय॥29॥
मूये पीड़ा पुकारता, वैद्य न मिलिया आय।
दादू थोड़ी बात थी, जे टुक दरश दिखाय॥30॥
दादू मैं भिखारी मंगता, दर्शन देहु दयाल।
तुम दाता दुख भंजता, मेरी करहु सँभाल॥31॥
छिन विछोह
क्या जीये में जीवणा, बिन दरशन बेहाल।
दादू सोई जीवणा, परगट परसन लाल॥32॥
इहि जग जीवन सो भला, जब लग हिरदै राम।
राम बिना जो जीवना, सो दादू बेकाम॥33॥
विरह विनती
दादू कहु दीदार की, सांई सेती बात।
कब हरि दरशन देहुगे, यह अवसर चल जात॥34॥
व्यथा तुम्हारे दरश की, मोहि व्यापै दिन-रात।
दुखी न कीजे दीन को, दरशन दीजे तात॥35॥
दादू इस हियड़े यह साल, पिव बिन क्योंहि न जायसी।
जब देखूँ मेरा लाल, तब रोम-रोम सख आइसी॥36॥
तूं है तैसा प्रकाश करि, अपना आप दिखाय।
दादू को दीदार दे, बलि जाउं विलम्ब न लाय॥37॥
दादू पिवजी देखें मुझको, हूँ भी देखूँ पीव।
हूँ देखूँ देखत मिले, तो सुख पावे जीव॥38॥
विरह कसौटी
दादू कहै तन मन तुम पर वारणै, कर दीजे कै बार।
जे ऐसी विधि पाइये, तो लीजे सिरजनहार॥39॥
विरह पतिव्रत
दीन दुनी सदके करूँ, टुक देखण दे दीदार।
तन मन भी छिन-छिन करौं, भिस्त दोजख भी वार॥40॥
विरह कसौटी
दादू हम दुखिया दीदार के, तू दिल तैं दूर न होइ।
भावै हमको जाल दे, होना है सो होइ॥41॥
विरह पतिव्रता
दादू कहै-जे कुछ दिया हमको, सो सब तुम ही लेहु।
तुम बिन मन माने नहीं, दरश आपणा देहु॥42॥
दूजा कुछ माँगैं नहीं, हमको दे दीदार।
तूं है तब लग एक टग, दादू के दिलदार॥43॥
विरह विनती
दादू कहै-तूं है तैसी भक्ति दे, तूं है तैसा प्रेम।
तूं है तैसी सुरति दे, तूं है तैसा क्षेम॥44॥
विरह कसौटी
दादू कहै-सदके करूँ शरीर को, बेर-बेर बहु भंत।
भाव-भक्ति हित प्रेम ल्यौ, खरा पियारा कंत॥45॥
दादू दरशन की रली, हमको बहुत अपार।
क्या जाणूँ कब ही मिले, मेरा प्राण अधार॥46॥
दादू कारण कंत के, खरा दुखी बेहाल।
मीरा मेरा मिहर करि, दे दर्शन दर हाल॥47॥
ताल-बेली प्यास बिन, क्यों रस पीया जाय।
विरहा दरशन दरद सौं, हमको देहु खुदाय॥48॥
ताला-बेली पीड़ सौं, विरहा प्रेम पियास।
दर्शन सेती दीजिए, विलसे दादू दास॥49॥
दादू कहै-हमको अपना आप दे, इश्क मुहब्बत दर्द।
सेज सुहाग सुख प्रेम रस, मिल खेलें लापर्द॥50॥
विरह उपदेश
प्रेम भक्ति माता रहे, तालाबेली अंग।
सदा सपीड़ा मन रहे, राम रमे उन संग॥51॥
विरह विनती
प्रेम मगन रस पाइये, भक्ति हेत रुचि भाव।
विरह विश्वास निज नाम सौं, देव दयाकर आव॥52॥
गई दशा सब बाहुड़े, जे तुम प्रगटहु आय।
दादू ऊजड़ सब बसे, दर्शन देहु दिखाय॥53॥
हम कसिये क्या होइगा, विड़द तुम्हारा जाय।
पीछैं ही पछिताहुगे, तातैं प्रकटहु आय॥54॥
छिन विछोह
मींयां मैंडा आव घर, वांढी वत्तां लोइ।
डुखंडे मुंहिडे गये, मराँ विछोहै रोइ॥55॥
विरह पतिव्रत
है सो निधि नहिं पाइये, नहिं सु है भरपूर।
दादू मन माने नहीं, तातैं मरिये झूर॥56॥
विरही विरह लक्षण परीक्षा
जिस घट इश्क अल्लाह का, तिस घट लोही न माँस।
दादू जियरे जक नहीं, सिसके श्वासों श्वास॥57॥
रती रब ना बीसरै, मरै सँभाल सँभाल।
दादू सुहदायी रहे, आशिक-अल्लह नाल॥58॥
दादू आशिक रब्बदा, शिर भी डेबे लाहि।
अल्लह कारण आपको, साड़े अन्दर भाहि॥59॥
विरह कसौटी
भोरे-भोरे तन करै, वंडे कर कुरबाण।
मिट्ठा कोड़ा ना लगे, दादू तोहूँ साण॥60॥
विरही विरह-लक्षण
जब लग शीश न सौंपिये, तब लग इश्क न होय।
आशिक मरणे ना डरे, पिया पियाला सोय॥61॥
विरह पतिव्रत
तैं डीनोंई सभु, जे डीये दीदार के।
उंजे लहदी अभु, पसाई दो पाण के॥62॥
बिचौं सभो डूर कर, अन्दर बिया न पाय।
दादू रत्ता हिकदा, मन मुहब्बत लाय॥63॥
विरह उपदेश
इश्क मुहब्बत मस्त मन, तालिब दर दीदार।
दोस्त दिल हरदम हरजू, यादगार हुशियार॥64॥
विरह लक्षण
दादू आशिक एक अल्लाह के, फारिग दुनियाँ दीन।
तारिक इस औजूद तैं, दादू पाक यकीन॥65॥
आशिकां रह कब्ज करदां, दिल वजां रफतन्द।
अल्लह आले नूर दीदम, दिल हि दादू बन्द॥66॥
शब्द
दादू इश्क अवाज सौं, ऐसे कहै न कोय।
दर्द मुहब्बत पाइये, साहिब हासिल होय॥67॥
विरही विरह-लक्षण
कहाँ आशिक अल्लाह के, मारे अपने हाथ।
कहाँ आलम औजूद सौं, कहैं जबाँ की बात॥68॥
दादू इश्क अल्लाह का, जे कबहूँ प्रगटे आय।
तो तन-मन दिन अरवाह का, सब पड़दा जल जाय॥69॥
विरह-जिज्ञासु-उपदेश
अरवाहे सिजदा कुनंद, वजूद दा चिःकार।
दादू नूर दादनी, आशिकां दीदार॥70॥
विरह ज्ञानाग्नि
विरह अग्नि तन जालिये, ज्ञान अग्नि दौं लाय।
दादू नख-शिख पर जले, तब राम बुझावे आय॥71॥
विरह अग्नि में जालिबा, दरशन के तांई।
दादू आतुर रोइबा, दूजा कुछ नाँहीं॥72॥
विरह पतिव्रत
साहिब सौं कुछ बल नहीं, जिन हठ साधे कोय।
दादू पीड़ पुकारिये, रोतां होय सो होय॥73॥
ज्ञान ध्यान सब छाड़िदे, जप-तप साधन जोग।
दादू विरहा ले रहै, छाड़ि सकल रस भोग॥74॥
जहँ विरहा तहँ और क्या, सुधि-बुधि नाठे ज्ञान।
लोक वेद मारग तजे, दादू एकै ध्यान॥75॥
विरही-विरह लक्षण
विरही जन जीवे नहीं, जे कोटि कहैं समझाय।
दादू गहिला ह्वै रहै, कै तलफि-तलफि मरि जाय॥76॥
दादू तलफै पीड़ सौं, विरही जन तेरा।
सिसकै सांई कारणै, मिल साहिब मेरा॥77॥
पड़ा पुकारै पीड़ सौं, दादू विरही जन।
राम सनेही चित बसै, और न भावै मन॥78॥
जिस घट विरहा राम का, उसे नींद न आवे।
दादू तलफै विरहनी, उसे पीड़ जगावे॥79॥
सारा शूरा नींद भर, सब कोई सोवे।
दादू घाइल दर्दवंद, जागे अरु रोवे॥80॥
पीड़ पुराणी ना पड़े, जे अन्तर बैध्या होय।
दादू जीवन-मरण लों, पड्या पुकारे सोय॥81॥
दादू विरही पीड़ा सौं, पड्या पुकारे मिंत्त।
राम बिना जीवे नहीं, पीव मिलन की चिंत्त॥82॥
जो कबहूँ विरहनि मरे, तो सुरति विरहनि होइ।
दादू पिव पिव जीवतां, मुवाँ भी टेरे सोइ॥83॥
दादू अपनी पीड़ पुकारिये, पीड़ पराई नाँहि।
पीड़ पुकारे सो भला, जाके करक कलेजे माँहि॥84॥
विरह-विलाप
ज्यों जीवत मृत्तक कारणे, गत कर नाखे आप।
यों दादू कारण राम के, विरही करै विलाप॥85॥
दादू तलफि-तलफि विरहणि मरे, करि-करि बहुत विलाप।
विरह अग्नि में जल गई, पीव न पूछे बात॥86॥
दादू कहाँ जाऊँ कौन पै पुकारूँ, पीव न पूछे बात।
पिव बिन चैन न आवई, क्यों भरूँ दिन-रात॥87॥
दादू विरह वियोग न सह सकूँ, मों पै सह्या न जाय।
कोई कहो मेरे पीव को, दरश दिखावे आय॥88॥
दादू विरह वियोग न सह सकूँ, निशि दिन साले मोहि।
कोई कहो मेरे पीव कौं, कब मुख देखूँ तोहि॥89॥
दादू विरह वियोग न सहि सकूँ, तन-मन धरे न धीर।
कोई कहो मेरे पीव को, मेटे मेरी पीर॥90॥
दादू कहै-साधु दुखी संसार में, तुम बिन रह्या न जाय।
औरों के आनन्द है, सुख सौं रैनि बिहाय॥91॥
दादू लाइक हम नहीं, हरि के दरशन जोग।
बिन देखे मर जाँहिगे, पिव के विरह वियोग॥92॥
विरह पतिव्रत
दादू सुख सांई सौं, और सबे ही दुःख।
देखूँ दर्शन पीव का, तिस ही लागे सुख॥93॥
चन्दन शीतल चन्द्रमा, जल शीतल सब कोइ।
दादू विरही राम का, इन सौं कदे न होइ॥94॥
विरही-विरह-लक्षण
दादू घाइल दर्दवंद, अन्तर करे पुकार।
साँई सुने सब लोक में, दादू यहु अधिकार॥95॥
दादू जागे जगत गुरु, जब सगला सोवे।
विरही जागे पीड़ा सौं, जे घाइल होवे॥96॥
विरह-ज्ञानाग्नि
विरह अग्नि का दाग दे, जीवत मृतक गौर।
दादू पहली घर किया, आदि हमारी ठौर॥97॥
विरह पतिव्रत
दादू देखे का अचरज नहीं, अण देखे का होय।
देखे ऊपरि दिल नहीं, अण देखे को रोय॥98॥
विरह उपजनि
पहली आगम विरह का, पीछे प्रीति प्रकाश।
प्रेम मगन लै लीन मन, तहाँ मिलन की आश॥99॥
विरह वियोगी मन भला, साँई का वैराग।
सहज संतोषी पाइये, दादू मोटे भाग॥100॥
दादू तृषा बिना तन प्रीति न उपजे, शीतल निकट जल धरिया।
जनम लगैं जीव पुणग न पीवे, निर्मल दह दिश भरिया॥101॥
दादू क्षुधा बिना तन प्रीति न उपजे, बहु विधि भोजन नेरा।
जनम लगैं जिव रती न चाखे, पाक पूरि बहुतेरा॥102॥
दादू तपति बिना तन प्रीति न उपजे, संग हि शीतल छाया।
जनम लगैं जिव जाणे नाँहीं, तरुवर त्रिभुवन राया॥103॥
दादू चोट बिना तन प्रीति न उपजे, औषधि अंग रहंत।
जनम लगैं जीव पलक न परसे, बूँटी अमर अनंत॥104॥
दादू चोट न लागी विरह की, पीड़ा न उपजी आय।
जागि न रोवे धाह दे, सोवत गई बिहाय॥105॥
दादू पीड़ा न ऊपजी, ना हम करी पुकार।
तातैं साहिब न मिल्या, दादू बीती बार॥106॥
अन्दर पीड़ न ऊभरै, बाहर करे पुकार।
दादू सो क्यों कर लहे, साहिब, का दीदार॥107॥
मन ही माँहीं झूरणा, रावे मन ही माँहि।
मन ही माँहीं धाह दे, दादू बाहर नाँहि॥108॥
बिन ही नैन हुँ रोवणा, बिन मुख पीड़ पुकार।
बिन ही हाथों पीटणा, दादू बारंबार॥109॥
प्रीति न उपजे विरह बिन, प्रेम भक्ति क्यों होय।
सब झूठे दादू भाव बिन, कोटि करे जे कोय॥110॥
दादू बातों विरह न ऊपजे, बातों प्रीति न होय।
बातों प्रेम न पाइये, जिनि रु पतीजे कोय॥111॥
विरह उपदेश
दादू तो पिव पाइये, कुश्मल है सो जाय।
निर्मल मन कर आरसी, मूरति माँहि लखाय॥112॥
दादू तो पिव पाइये, करिये मंझें विलाप।
सुणि है कबहु चित्त धारि, परगट होवे आप॥113॥
दादू तो पिव पाइये, कर सांई की सेव।
काया माँहि लखाइसी, घट ही भीतरि देव॥114॥
दादू तो पिव पाइये, भावै प्रीति लगाय।
हेजैं हरि बुलाइये, मोहन मंदिर आय॥115॥
विरह-उपजनि
दादू जाके जैसी पीड़ा है, सो तैसी करे पुकार।
को सूक्ष्म को सहज में, को मृत्तक तिहिं बार॥116॥
विरह-लक्षण
दरद हि बूझे दरदवंद, जाके दिल होवे।
क्या जाणे दादू दरद की, नींद भर सोवे॥117॥
दादू अक्षर प्रेम का, कोई पढ़ेगा एक।
दादू पुस्तक प्रेम बिन, केते पढ़ैं अनेक॥118॥
दादू पाती प्रेम की, विरला बाँचे कोइ।
वेद पुराण पुस्तक पढ़ै, प्रेम बिना क्या होइ॥119॥
विरह-लक्षण
दादू कर बिन, शर बिन, कमान बिन, मारै खैंचि कसीस।
लागी चोट शरीर में, नख शिख सालै सीस॥120॥
दादू भलका मारे भेद सौं, सालै मंझि पराण।
मारण हारा जाणि है, कै जिहिं लागे बाण॥121॥
दादू सो शर हमको मारिले, जिहिं शर मिलिये जाय।
निश दिन मारग देखिए, कबहूँ लागे आय॥122॥
जिहिं लागी सो जगि है, बेध्या करै पुकार।
दादू पिंजर पीड़ है, सालै बारंबार॥123॥
विरही सिसकै पीड़ सौं, ज्यों घायल रण माँहि।
प्रीतम मारे बाण भरि, दादू जीवैं नाँहि॥124॥
दादू विरह जगावे दरद को, दरद जगावे जीव।
जीव जगावे सुरति को, पंच पुकारे पीव॥125॥
दादू मारे प्रेम सौं, बेधे साधु सुजाण।
मारण हारे को मिले, दादू विरही बाण॥126॥
सहजैं मनसा मन सधै, सहजैं पवना सोय।
सहजैं पंचो थिर भये, जे चोट विरह की होय॥127॥
मारण हारा रहि गया, जिहिं लागी सो नाँहि।
कबहूँ सो दिन होइगा, यह मेरे मन माँहि॥128॥
प्रीतम मारे प्रेम सौं, तिनको क्या मारे।
दादू जाके विरह के, तिनको क्या जारे॥129॥
छिन-विछोह
दादू पड़दा पलक का, येता अंतर होइ।
दादू विरही राम बिन, क्यों करि जीवे सोइ॥130॥
विरह-लक्षण
काया मांहैं क्यों रह्या, बिन देखे दीदार।
दादू विरही बावरा, मरे नहीं तिहिं बार॥131॥
बिन देखे जीवै नहीं, विरह का सहिनाण।
दादू जीवै जब लगैं तब लग विरह न जाण॥132॥
विरह-विनती
रोम-रोम रस प्यास है, दादू करहि पुकार।
राम घटा दल उमंगि कर बरसहु सिरजनहार॥133॥
विरही-विरह-लक्षण
प्रीति जु मेरे पीव की, पैठी पिंजर माँहि।
रोम-रोम पिव-पिव करे, दादू दूसर नाँहि॥134॥
सब घट श्रवणा सुरति सौं, सब घट रसना बैंन।
सब घट नैना ह्वै रहै, दादू विरहा ऐन॥135॥
विरह-विलाप
रात दिवस का रोवणाँ, पहर पलक का नाँहि।
रोवत-रोवत मिल गया, दादू साहिब माँहि॥136॥
दादू नैन हमारे बावरे, रोवे नहिं दिन-रात।
सांई संग न जाग ही, पिव क्यों पूछे बात॥137॥
नैनहु नीर न आइया, क्या जाणैं ये रोइ।
तैसे ही कर रोइये, साहिब नैनहु जोइ॥138॥
दादू नैन हमारे ढीठ हैं, नाले नीर न जाँहि।
सूके सरां सहेत वै, करंक भये गलि माँहि॥139॥
विरही-विरह-लक्षण
दादू विरह प्रेम की लहरि में, यहु मन पंगुल होइ।
राम नाम में गलि गया, बुझै विरला कोइ॥140॥
विरह-ज्ञानाग्नि
विरह अग्नि में जल गये, मन के मैल विकार।
दादू विरही पीव का, देखेगा दीदीर॥141॥
विरह अग्नि में जल गये, मन के विषय विकार।
तातैं पंगुल ह्वै रह्या, दादू दर दीदार॥142॥
जब विरहा आया दरद सौं, तब मीठा लागा राम।
काया लागी काल ह्वै, कड़वे लागे काम॥143॥
विरह-बाण
जब राम अकेला रहि गया, तन-मन गया बिलाइ।
दादू विरही तब सुखी, जब दरश परस मिल जाइ॥144॥
जे हम छाड़ैं राम कूँ, तो राम न छाडै।
दादू अमली अमल तैं, मन क्यों करि काढ़ै॥145॥
विरहा पारस जब मिले, विरहनि विरहा होय।
दादू परसै विरहनी, पिव पिव टेरे सोय॥146॥
आशिक माशूक ह्वै गया इश्क कहावे सोय।
दादू उस माशूक का, अल्लह आशिक होय॥147॥
राम विरहनी ह्वै रह्या, विरहनि ह्वै गई राम।
दादू विरहा बापुरा, ऐसे कर गया काम॥148॥
विरह बिचारा ले गया, दादू हमको आइ।
जहँ अमग अगोचर राम था, तहँ विरह बिना को जाइ॥149॥
विरह बपुरा आइ करि, सोवत जगावे जीव।
दादू अंग लगाइ करि, ले पहुँचावे पीव॥150॥
विरहा मेरा मीत है, विरहा वैरी नाँहि।
विरहा को वैरी कहै, सो दादू किस माँहि॥151॥
दादू इश्क अलह की जाति है, इश्क अलह का अंगं
इश्क अल्लाह वजूद है, इश्क अलह का रंग॥152॥
साधु-महिमा-माहात्म्य
दादू प्रीतम के पग परसिये, मुझे देखन का चाव।
तहँ ले शीश नवाइये, जहाँ धरे थे पाव॥153॥
विरह-पतिव्रत
बाट विरह की सोधि करि, पंथ प्रेम का लेहु।
लै के मारग जाइये, दूसर पाव न देहु॥154॥
विरहा वेगा भक्ति सहज में, आगे-आगे जाय।
थोड़े माँहीं बहुत है, दादू रहु ल्यौ लाय॥155॥
विरह-बाण
विरहा वेगा ले मिले, ताला-बेली पीर।
दादू मन घाइल भया, सालै सकल शरीर॥156॥
विरह-विनती
आज्ञा अपरंपार की, बसि अम्बर भरतार।
हरे पटम्बर पहरि करि, धरती करे सिंगार॥157॥
वसुधा सब फूले-फले, पृथ्वी अनन्त अपार।
गगन गर्ज जल थल भरै, दादू जै जै कार॥158॥
काला मुँह कर काल का, सांई सदा सुकाल।
मेघ तुम्हारे घर घणां, बरसहु दीनदयाल॥159॥
॥इति विरह का अंग सम्पूर्ण॥