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अथ शूरातन का अंग / दादू ग्रंथावली / दादू दयाल

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अथ शूरातन का अंग

दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवतः।
वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः॥1॥

शूर, सती, साधु निर्णय

साँचा शिर सौं खेल है, यह साधु जन का काम।
दादू मरणा आसँघे, सोइ कहेगा राम॥2॥
राम कहैं ते मर कहैं, जीवित कह्या न जाय।
दादू ऐसे राम कह, सती शूर सम भाय॥3।
जब दादू मरबा गहै, तब लोगों की क्या लाज।
सती राम साँचा कहै, सब तज पति सों काज॥4॥
दादू हम कायर कड़बा कर रहे, शूर निराला होय।
निकस खड़ा मैदान में, ता सम और न कोय॥5॥

शूर, सती, साधु निर्णय

मडा न जीवे तो संगजले, जीवे तो घर आण।
जीवण-मरण राम सौं, सोइ सती कर जाण॥6॥
जन्म लगैं व्यभिचारणी, नख-शिख भरी कलंक।
पलक एक सन्मुख जली, दादू धोये अंक॥7॥
स्वाँग सती का पहर कर, करे कुटुम्ब का सोच।
बाहर शूरा देखिए, दादू भीतर पोच॥8॥
दादू सती तो सिरजनहार सौं, जले विरह की झाल।
ना वह मरे न जल बुझे, ऐसे संग दयाल॥9॥
जे मुझ होते लाख शिर, तो लाखों देती वारि।
सह मुझ दिया एक शिर, सोई सौंपे नारि॥10॥
सती जल कोयल भई मुये मड़े की लार।
यों जे जलती राम सौं, साँचे सँग भरतार॥11॥
मुये मड़े से हेत क्या, जे जिय की जाणे नाँहिं।
हेत हरी से कीजिए, जे अन्तरयामी माँहिं॥12॥

शूरवीर-कायरत

शूरा चढ़ संग्राम को, पाछा पग क्यों देय।
साहिब लाजे भाजतां, धिग जीवन दादू तेय॥13॥
सेवक शूर राम का, सोइ कहेगा राम।
दादू शूर सन्मुख रहे, नहिं कायर का काम॥14॥
कायर काम न आवही, यहु शूरे का खेत।
तन मन सौंपे राम को, दादू शीश सहेत॥15॥
जब लग लालच जीव का, तब लग निर्भय हुआ न जाय।
काया माया मन तजे, तब चौड़े रहै बजाय॥16॥
दादू चौड़े में आनन्द है, नाम धर्या रणजीत।
साहिब अपना कर लिया, अन्तर गत की प्रीति॥17॥
दादू जे मुझ काम करीम सौं, तो चौहट चढ़कर नाच।
झूठा है तो जाइगा, निश्चै रहसी साँच॥18॥

जीवित-मृतक

राम कहेगा एक को, जे जीवित मृतक होय।
दादू ढूँढे पाइये, कोटी मध्ये कोय॥19॥

शूर सती साधु निर्णय

शूरा पूरा संत जन, सांई को सेवे।
दादू साहिब कारणे, शिर अपणा देवे॥20॥
शूरा जूझे खेत में, सांई सन्मुख आय।
शूरे को सांई मिले, तब दादू काल न खाय॥21॥
मरबे ऊपरि एक पग, करता करे सो होइ।
दादू साहिब कारणे, तालाबेली मोहि॥22॥

हरि भरोसे

दादू अंग न खैंचिए, कह समझाऊँ तोहि।
मोहि भरोसा राम का, बंका बाल न होइ॥23॥
बहुत गया थोड़ा रह्या, अब जिव सोच निवार।
दादू मरणा मांड रहु, साहिब के दरबार॥24॥

शूरवीर-कायरता

जीऊँ का संशय पड्या, को काको तारे।
दादू सोई शूरवाँ, जे आप उबारे॥24॥
जे निकसे संसार तैं, सांई की दिशि धाय।
जे कबहुँ दादू बाहुड़े, तो पीछे मार्या जाय॥26॥
दादू कोई पीछे हेला जिन करे, आगे हेला आव।
आगे एक अनूप है, नहिं पीछे का भाव॥27॥
पीछे को पग ना भरे, आगे को पग देय।
दादू यहु मत शूर का, आगम ठौर को लेय॥28॥
आगा चल पीछा फिरे, ताका मुँह मदीठ।
दादू देखे दोइ दल, भागे देकर पीठ॥29॥
दादू मरणा माँड कर, रहै नहीं ल्यौ लाय।
कायर भाजे जीव ले, आ रण छाड़े जाय॥30॥
शूरा होइ सु मेर उलंघे, सब गुण बंध्या छूटे।
दादू निर्भय ह्वै रहे, कायर तिणा न टूटे॥31॥

शूर सती साधु निर्णय

सर्प केशरि काल कुंजर, बहु जोध मारग माँहिं।
कोटि में कोई एक ऐससा, मरण आसँध जाँहिं॥32॥
दादू जब जागे तब मारिये, बैरी जिय के साल।
मनसा डायण काम रिपु, क्रोध महाबलि काल॥33॥
पंच चोर चितवन रहैं, माया मोह विष झाल।
चेतन पहरे आपने, कर गह खड़ग सँभाल॥34॥
काया कबज कमाण कर, सार शब्द कर तीर।
दादू यहु सर साँध कर, मारै मोटे मीर॥35॥
काया कठिन कमाण है, खाँचे विरला कोइ।
मारे पंचों मिरगला, दादू शूरा सोइ॥36॥
जे हरि कोप करे इन ऊपर, तो काम कटक दल जाँहिं कहाँ।
लालच लोभ क्रोध कत भोजे प्रगट हरे हरि जहाँ तहाँ॥37॥

शूरातन

दादू तन-मन काम करीम के, आवे तो नीका।
जिसका तिस को सौंपिए, सोच क्या जीव का॥38॥
जे शिर सौंप्या राम को, सो शिर भया सनाथ।
दादू दे ऊरण भया, जिसका तिसके हाथ॥39॥
जिसका है तिसको चढ़े, दादू ऊरण होइ।
पहली देवे सो भला, पीछे तो सब कोइ॥40॥
सांई तेरे नाम पर, शिर जीव करूँ कुरबाण।
तन-मन तुम पर वारणे, दादू पिंड पराण॥41॥
अपणे सांई कारणे, क्या-क्या नहिं कीजे।
दादू सब आरम्भ तज, अपणा शिर दीजे॥42॥
शिर के साटे लीजिए, साहिबजी का नाउँ।
खेले शीश उतार कर, दादू मैं बलि जाउँ॥43॥
खेले शीश उतार कर, अधर एक सौं आय।
दादू पावे प्रेम रस, सुख में रहै समाय॥44॥

मरण भय निवारण

दादू मरणे थीं तू मर डरे, सब जग मरता जोइ।
मिल कर मरणा राम सौं, तो कलि अजरावर होइ॥45॥
दादू मरणे थीं तूं मत डरे, मरणा अन्त निदान।
रे मन मरणा सिरजिया, कहले केवल राम॥46॥
दादू मरणे थीं तूं मत डरे, मरणा पहुँच्या आय।
रे मन मेरा राम कह, बेगा बार न लाय॥47॥
दादू मरणे थीं तूं मत डरे, मरणा आज कि काल्ह।
मरणा-मरणा क्या करे, बेगा राम सँभाल॥48॥
दादू मरणा खूब है, निपट बुरा व्यभिचार।
दादू पति का छाड कर, आन भजे भरतार॥49॥
दादू तन तैं कहा डराइए, जे विनश जाइ पल बार।
कायर हुआ न छूटिए, रे मन हो हुसियार॥50॥
दादू मरणा खूब है, मर माँहीं मिल जाय।
साहिब का सँग छाड कर, कौण सहे दुख आय॥51॥

शूरातन

दादू माँहै मन सौं जूझ कर, ऐसा शूरा वीर।
इन्द्री अरि दल भान सब, यों कलि हुआ कबीर॥52॥
सांई कारण शीश दे, तन-मन सकल शरीर।
दादू प्राणी पंच दे, यों हरि मिल्या कबीर॥53॥
सबै कसौटी शिर सहै, सेवग सांई काज।
दादू जीववन क्यों तजे, भाजे हरि को लाज॥54॥
सांई कारण सब तजे, जन का ऐसा भाव।
दादू राम न छाड़िए, भावे तन-मन जाव॥55॥

पतिव्रत निष्काम

दादू सेवग सो भला, सेवे तन-मन लाय।
दादू साहिब छाड़ कर, काहू संग न जाय॥56॥
पतिव्रता पति पीव को, सेवे दिन अरु रात।
दादू पति को छाड़कर, काहू संग न जात॥57॥

शूरातन

दादू मरबो एक जु बार, अमर झुकेड़े मारिये।
तो तिरिये संसार, आतम कारज सारिये॥58॥
दादू जे तूं प्यासा प्रेम का, तो जीवण की क्या आस।
शिर के साटे पाइये, तो भर-भर पीवे दास॥59॥

कायर

मन मनसा जीते नहीं, पंच न जीते प्राण
दादू रिपु जीते नहीं, कहैं हम शूर सुजाण॥60॥
मन मनसा मारे नहीं, काया मारण जाँहिं।
दादू बाँबी मारिये, सर्प मरे क्यों माँहिं॥61॥

शूरातन

दादू पाखर पहर कर, सब को झूझण जाय।
अंग उघाड़े शूरवाँ, चोट मुँहैं मुँह खाय॥62॥
जब झूझे तब जाणिये, काछ खड़े क्या होयं
चोट मुँहैं मुह खाइगा, दादू शूर सोइ॥63॥
शूरातन सहजैं सदा, साँच शेल हथियार।
साहिब के बल झूझताँ, केते किये सुुमार॥64॥
दादू जब लग जिय लागे नहीं, प्रेम प्रीति के शेल।
तब लग पिव क्यों पाइये, नहिं बाजीगर का खेल॥65॥
दादू जे तूं प्यासा प्रेम का, तो किसको सैतैं जीव।
शिर के साटे लीजिए, जे तुझ प्यारा पीव॥66॥
दादू महा जोध मोटा बली, सो सदा हमारी भीर।
सब जग रूठा क्या करे, जहाँ-तहाँ रणधीर॥67॥
दादू रहते पहते राम जन, तिन भी माँड्या झूझ।
साँचा मुँह मोड़े नहीं, अर्थ इता ही बूझ॥68॥

हरि भरोसे

दादू काँधेसबल के, निर्वाहेेगा और।
आसण अपणे ले चल्या, दादू निश्चल ठौर॥69॥

शूरातन

दादू क्या बल कहा पतंग का, जलत न लागे बार।
बल तो हरि बलवन्त का, जीवें जिहिं आधार॥70॥
राखण हारा राम है, शिर ऊपर मेरे।
दादू केते पच गये, वैरी बहुतेरे॥71॥

शूरातन विनती

दादू बलि तुम्हारे बापजी, गिणत न राणा राव।
मीर मलिक प्रधान पति, तुम बिन सब ही बाव॥72॥
दादू राखी राम पर, अपणी आप संवाह।
दूजा को देखूँ नहीं, ज्यों जाणैं निर्वाह॥73॥
तुम बिन मेरे को नहीं, हमको राखणहार।
जे तूँ राखे सांइयाँ, तो कोई न सकै मार॥74॥
सब जग छाडे हाथ तैं, तो तुम जनि छाडहु राम।
नहि कुछ कारज जगत् सौं, तुमही सेती काम॥75॥

शूरातन

दादू जाते जिव तैं तो डरूँ, जे जिव मेरा होय।
जिन यहु जीव उपाइया, सार करेगा सोय॥76॥
दादू जिनको सांई पाधरा, तिन बंका नहिं कोइ।
सब जग रूठा क्या करे, राखणहारा सोइ॥77॥
दादू साँचा साहिब शिर ऊपरै, तती न लागे बाव।
चरण कमल की छाया रहै, कीया बहुत पसाव॥78॥

विनती

दादू कहै- जे तूँ राखे सांइयाँ, तो मार सके न कोइ।
बाल न बंका कर सके, जे जग बैरी होइ॥79॥
राखणहारा राखे, तिसे कौण मारे।
उसे कौण डुबोवे, जिसे सांई तारे॥
कह दादू सो कबहूँ न हारे, जे जन सांई सँभारे॥80॥
निर्भय बैठा राम जपि, कबहूँ काल न खाय।
जब दादू कुंजर चढ़े, तब सुनहां झख जाय॥81॥
कायर कूकर कोटि मिल, भौंकें अरु भागैं।
दादू गरवा गुरुमुखी, हस्ती नहिं लागे॥82॥

॥इति शूरातन का अंग सम्पूर्ण॥